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________________ ३२६ धर्मामृत ( सागार ) अथ प्रशस्तमुष्कमेहनस्य सर्वत्र प्रसक्तमौत्सर्गिकलिङ्गमपवदन्नाह ह्रीमान् महद्धिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवाः। सोऽविविक्ते पदे नाग्न्यं शस्तलिङ्गोऽपि नार्हति ॥३८॥ पदे-स्थाने । लिङ्ग-पुंस्त्वचिह्न मुष्कमेहनमित्यर्थः । यदाह 'मिथ्यादृक्परिवारो योग्यावसथस्नपान्वितः श्रीमान् । अपवादिकलिङ्गमसौ भजति भदन्ता वदन्त्येवम् ॥' [ 1॥३८॥ अथ संस्तरारोहणसमये स्त्रिया लिङ्गविकल्पमतिदिशन्नाह यदौगिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनः स्त्रियाः । पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः ॥३९॥ पुंवत् । अयमर्थः-पुंसो यदौत्सर्गिकलिङ्गस्य मृत्यावौत्सर्गिकमेव लिङ्गमिष्यते । आपवादिक१२ लिङ्गस्यानन्तरमेव व्याख्यातप्रकारम् । तथा योषितोऽपि स्वल्पीकृतोपधेः-विविक्तवसत्यादिसंपत्ती सत्यां वस्त्रमपि त्यक्तवत्याः । उक्तं च 'औत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्ग यद्योषितः समुपलब्धम् । तस्यास्तदेव लिङ्गं परिमितमुपधि दधानायाः ॥' ॥३९॥ अथ मुमुक्षोलिङ्गाग्रहत्यागेन स्वद्रव्यग्रहपरत्वमुपदिशति देह एव भवो जन्तोर्यल्लिङ्गं च तदाश्रितम् । जातिवत्तद्ग्रहं तत्र त्यक्त्वा स्वात्मग्रहं विशेत् ॥४०॥ तत्र-लिङ्गे । उक्तं च 'लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥' [ स. तन्त्र ८७] तीन स्थानोंमें दोषसे रहित व्यक्तिको भी विशेष स्थितिमें नग्नता देनेका निषेध करते हैं यदि श्रावक लज्जाशील है, या सम्पत्तिशाली है, या उसके अधिकांश कुटुम्बी विधर्मी हैं तो उसके पुरुषचिह्न आदिके निर्दोष होते हुए भी बहुजन समाजके सामने वह नग्नता प्रदान करनेके योग्य नहीं है । अर्थात् उसे एकान्त स्थानमें नग्नता दी जा सकती है ॥३८।। संस्तर पर आरोहणके समय स्त्रीके लिंगके सम्बन्धमें कहते हैं जिन भगवान्ने स्त्रीका जो औत्सर्गिक लिंग या अन्य पद वगैरह कहा है वह उसके मृत्युकालमें जब एकान्त वसतिका आदिके होनेपर वह वस्त्र मात्रका भी परित्याग कर देती है तब पुरुषकी तरह स्वीकार किया है ॥३९।। विशेषार्थ-आशय यह है कि जैसे औत्सर्गिक लिंगके धारक पुरुषके मृत्युके समयमें औत्सर्गिकलिंग ही इष्ट है उसी प्रकार स्त्रीके भी मृत्यके समय औत्सगिक लिं क्योंकि एकान्त वसतिका आदि स्थानमें वह वस्त्र त्याग कर सकती है।॥३९|| मुमुक्षुको लिंगका मोह छोड़कर आत्मद्रव्यमें लीन होने का उपदेश देते हैं__ क्योंकि जीवका संसार शरीर ही है, ब्राह्मणत्व आदि जातिकी तरह जो नाग्न्य आदि लिंग है वह भी देहसे ही सम्बन्ध रखता है। इसलिए जातिकी तरह लिंगमें भी अभिनिवेशको छोड़कर अपने शुद्ध चिद्रूपमें क्षपक प्रवेश करे ॥४०॥ माना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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