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________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) ३२५ त्रिस्थान दोषः - त्रिषु स्थानेषु दोषो वृषणयोः कुरुण्डातिलम्बमान- [ -त्वादिर्मेहने च चर्मरहित- ] त्वातिदीर्घत्वासकृदुत्थानशीलत्वातिस्थूलतादि । आपवादिकं - यतीनामपवादहेतुत्वादपवादः परिग्रहः, सोऽस्यास्ति । औत्सर्गिकं - उत्सर्गः सकलपरिग्रहत्यागभावः । तदुक्तं --- 'यस्याप्यव्यभिचारो दोषस्त्रिस्थानिको भवेद्विहृतौ । संस्तरमध्यासीनो विवसनभावं भवेत्सोऽपि ॥' [ 1 अव्यभिचारः - औषधादीनामप्रसाध्यः । विहृती - विहारे वसतामित्यर्थः ॥३६॥ अथोत्कृष्टस्यापि श्रावकस्योपचरितायापि महाव्रतायाप्रभुत्वमाह - कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्याथिकार्हति ॥३७॥ अपि भाक्तं - उपचरितमपि अर्हति । भाक्तमेव महाव्रतमिति संबन्धः ||३७|| विशेषार्थ- परिग्रहसहित वेषको आपवादिक लिंग कहते हैं क्योंकि परिग्रह अपवादका कारण होता है । और सकल परिग्रहके त्यागमें होनेवाले लिंगको अर्थात् नग्नताको औत्सर्गिक लिंग कहते हैं । जिस मनुष्यके दोनों अण्डकोषोंमें और पुरुष चिह्नमें दोष होता है उसे जिनलिंग नहीं दिया जाता । अण्डकोषों में वृद्धिरोगका होना, उनका बहुत लटके हुए होना दोष है । मूत्रेन्द्रियका मुख चर्मरहित हो या ऐसी स्थितिमें हो जिसे देखकर लज्जा पैदा हो तो यह नग्नता के लिए दोष है । ऐसे दोषयुक्त व्यक्तिको जिनदीक्षा नहीं दी जाती । किन्तु ऐसे दोषों से युक्त भी व्यक्ति यदि मरते समय मुनित्रतकी इच्छा करता है तो उस समय उसे नग्नता दी जा सकती है क्योंकि वह मरणोन्मुख है । उसे जनता के बीच में विचरण नहीं करना है । कहा है- ' जिसके तीन स्थानों में ऐसा दोष हो जो औषध आदिसे भी दूर न हो सके, उसे भी संस्तरपर आरोहण करते समय नग्नता दी जा सकती है |' ||३६|| आगे कहते हैं कि उत्कृष्ट भी श्रावक अपनी अवस्थामें रहते हुए उपचार से भी महाव्रती कहलानेका अधिकारी नहीं है आश्चर्य है कि लंगोटी मात्र में ममत्वभाव रखनेसे उत्कृष्ट श्रावक उपचरित भी महाव्रतके योग्य नहीं है । और आर्यिका साड़ी में भी ममत्व भाव न रखनेसे उपचरित महात्रतके योग्य होती है ||३७| विशेषार्थ - महाव्रती वही होता है जो समस्त परिग्रहका त्याग करता है । आर्यिका स्त्री होने के कारण शरीर के वस्त्रका त्याग नहीं कर सकती । इसलिए वह महाव्रत धारण नहीं करती । ऐसा उसे जिनशासनकी आज्ञावश करना पड़ता है। स्वयं उसकी अपनी साड़ीसे कोई ममता नहीं होती, इसलिए उसे उपचरित महाव्रती माना है । किन्तु उत्कृष्ट श्रावक तो केवल एक लंगोटी रखता है फिर भी उसे उपचरित भी महाव्रतका अधिकारी नहीं कहा; क्योंकि वह चाहे तो लंगोटीका त्याग कर सकता है। किन्तु अपनी कमजोरीसे त्याग नहीं करता । इसमें आश्चर्य की बात यही है कि एक साड़ी रखते हुए भी उपचरित महाव्रती है । और एक मात्र लंगोटी रखकर भी उपचरित महाव्रती भी नहीं है । यहाँ यह कथन प्रसंगवश यह बतलानेके लिए किया है । उत्कृष्ट श्रावक लंगोटी त्यागे बिना उपचरित महाव्रती भी नहीं हो सकता ||३७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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