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________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) अथ क्षपकस्याहार विशेष प्रकाशनाद्भोजनासक्तिनिषेधार्थमाहयोग्यं विचित्रमाहारं प्रकाश्येष्टं तमाशयेत् । तत्रासजन्तमज्ञानाज्ज्ञानाख्यानैनिवर्तयेत् ||४८॥ इष्टं - किंचित्सर्वं वा क्षपकेणाकांक्ष्यमाणम् । कश्चिद्धि भोज्यविशेषान् दृष्ट्वा तीरं प्राप्तस्य किं ममैभिरिति प्राप्तवैराग्यः संवेगपरः स्यात् । कश्चिच्च किमपि भुक्त्वा अपरश्च सर्वं भुक्त्वा तथा स्यात् । कश्चित्तु तानास्वाद्य तद्रसासक्तिपरः स्याद्विचित्रत्वान्मोहनीय कर्मविलसितानाम् ॥४८॥ अथ नवभिः श्लोकैराहारविशेषगृद्धिप्रतिषेधपुरस्सरं तत्परिहारक्रममाहभो निजिताक्ष विज्ञातपरमार्थ महायशः ॥ किमद्य प्रतिभान्तीमे पुद्गलाः स्वहितास्तव ॥४९॥ इमे - भोजनशयनाद्युपकल्पिताः ॥४९॥ fi कोऽपि पुद्गलः सोऽस्ति यो भुक्त्वा नोज्झितस्त्वया । न चैष मूर्तोsपूर्तेस्ते कथमप्युपयुज्यते ॥ ५० ॥ अमूर्तेः - रूपादिरहितस्य ॥ ५० ॥ कार्य हैं जिनका निर्वाह सेवाभावी संयमी ही कर सकते हैं । उनके थोड़े-से भी प्रमादसे क्षपकके परिणाम विचलित हुए तो समाधिमरणका सब आयोजन व्यर्थ हो सकता है । इसलिए इस कार्य में गुणवानों में भी श्रेष्ठ साधुओंको लगाया जाता है । कहा है- 'धर्मप्रेमी, दृढ़ चित्तवाले, संसारसे विरक्त, दोषोंसे डरनेवाले, धीर, प्रायश्चित्तके ज्ञाता, प्रत्याख्यान के प्रयोग में कुशल, कल्प्य अकल्प्यके वेत्ता, शास्त्र के रहस्य के ज्ञाता ४८ निर्यापक साधु समाधिमरण कराने में तत्पर होते हैं' ||४७|| ३३१ अब विविध आहारोंका उपयोग करते हुए क्षपककी भोजनमें लिए कहते हैं आसक्ति दूर करने के नाना प्रकार के साधुके योग्य आहार क्षपकको दिखाकर जिसकी वह इच्छा करे वह उसे आचार्य खिला देवें । यदि अज्ञानसे वह भोजन में आसक्ति करे तो ज्ञानप्रेरक प्रसिद्ध कथाओंसे उसे विरत करें ॥ ४८ ॥ विशेषार्थ - भोजनको देखकर कोई तो यह विचार कर कि अब मुझे इससे क्या प्रयोजन है, वैराग्यकी ओर बढ़ता है । कोई थोड़ा-सा खाकर और कोई पूरा भोजन करके उससे अपना मन हटा लेता है । किन्तु कोई भोजनका स्वाद लेकर उसमें आसक्त होता है क्योंकि मोहनीय कर्मके विलास विचित्र हैं । इस प्रकार भोजनमें अज्ञानवश आसक्ति करने वालेको आचार्य उपदेश द्वारा प्राचीन कथाओंके द्वारा समझाते हैं ||४८|| नौ श्लोकों से आहार विशेषको तृष्णाका निषेध करते हुए आहारके त्यागका क्रम बतलाते हैं अहो समस्त इन्द्रियों को जीतनेवाले असाधारण रूपसे वस्तु तत्त्वका निर्णय करनेवाले ! महायशस्वी क्षपकोत्तम ! क्या आज ये भोजन आदि के रूपमें रचे गये पुद्गल तुम्हें आत्मा उपकारक प्रतीत होते हैं ? ||४९|| Jain Education International जिसे तुमने भोगकर नहीं छोड़ा; वह पुद्गल कोई भी है क्या ? फिर यह पुद्गल रूपादिमान होनेसे मूर्तिक है और तुम रूपादिसे रहित अमूर्तिक हो । यह पुद्गल किसी तरह तुम्हारा उपकारी नहीं है ॥५०॥ For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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