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________________ ३२२. धर्मामृत ( सागार) प्रायार्थी जिनजन्मादि स्थान परमपावनम् । आश्रयेत्तदलाभे तु योग्यमहगृहादिकम् ॥३०॥ जन्मादि। आदिशब्देन निष्क्रमणज्ञाननिर्वाणानि । तत्र जन्मस्थानं वृषभनाथस्यायोध्या। निष्क्रमणस्थानं सिद्धार्थवनम् । ज्ञानस्थानं शकटामुखोद्यानम् । निवाणस्थानं कैलासः । एवमन्येषामपि जन्मादिस्थानानि यथागममधिगम्यानि । योग्यं-समाधिसाधनसमर्थम् ॥३०॥ अथ तीर्थ प्रति चलितस्यावान्तरमार्गेऽपि मतस्याराधकत्वं दर्शयति प्रस्थितो यदि तीर्थाय म्रियतेऽवान्तरे तदा। अस्त्येवाराधको यस्माद् भावना भवनाशिनी ॥३१॥ तीर्थाय-जिनजन्मादिस्थानाय निर्यापकाचार्याय वा । अवान्तरे-स्वस्थानतीर्थस्थानयोरन्तराले । उपलक्षणमेतत् । तेन निर्यापकाचार्यमरणेऽप्याराधक: स्यादेव । यदाहः 'आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशम् । यद्याचार्यः कालं कुर्यादाराधको भवति ।। शल्यं संवेगोद्वेगपरिणतमनस्कः । यदि याति शुद्धिहेतोराराधयिता ततो भवति ॥ [ ] ॥३१॥ अथ तीर्थ गमिष्यन् क्षमापणं क्षमणं च कुर्यादित्युपदिशति स परणका इच्छक श्रावक परम पवित्र जिनदेवके जन्म आदि स्थानपर चला जाये। यदि उसका लाभ न हो तो समाधि साधनके योग्य जिनालय आदिको अपनावे ॥३०॥ विशेषार्थ-तीर्थंकरोंके कल्याणकोंसे पवित्र हुए स्थानोंका बड़ा महत्त्व है। वहाँके वायुमण्डलमें जानेपर स्वयं ही भावनाएँ पवित्र होती हैं। अतः हस्तिनापुर, अयोध्या, सम्मेद शिखर, गिरनार आदि स्थान समाधिके योग्य हैं। यदि जा सकना सम्भव न हो तो जिनालयमें समाधिमरण करना चाहिए । परिवारके मध्यमें समाधि नहीं हो सकती ॥३०॥ __आगे कहते हैं कि समाधिका इच्छुक तीर्थपर जाते हुए यदि मार्गमें मर जाये तब भी वह आराधक ही कहलाता है यदि समाधिका इच्छुक साधक जिन भगवान्के जन्म आदि स्थानके लिए या निर्यापकाचार्यके समीप पहुँचनेके लिए चले और मार्गमें मर जाये, तब भी वह आराधक ही है क्योंकि भावना अर्थात् समाधि मरणका ध्यान भी संसारका नाशक है ॥३१॥ विशेषार्थ-टीकामें कहा है कि निर्यापकाचार्यके पास जानेपर यदि निर्यापकाचार्यका मरण हो जाये तो भी समाधिका इच्छुक आराधक ही है क्योंकि उसकी भावना आराधनामें है । तथा यदि निर्यापकाचार्य मर जाये तब भी आराधक ही है । कहा है--आलोचना करनेवाला यदि गुरुके पास गया और आचार्य कालगत हो गये तब भी वह आराधक होता है। जिसके मनमें संवेग और उद्वेगका भाव है वह अपने मनसे शल्य निकालने के लिए यदि गमन करता है तो वह आराधक होता है ॥३१॥ आगे तीर्थको जानेवालेको क्षमा माँगने और क्षमा करनेका उपदेश देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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