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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय)
३२३
रागाद् द्वेषान्ममत्वाद्वा यो विराद्धो विराधकः।
यश्च तं क्षमयेत्तस्मै क्षाम्येच्च त्रिविधेन सः॥३२॥ विराद्धः-दुःखे स्थापितः । तं-विराद्धम् । तस्मै-विराधकाय । उक्तं च
'स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः ।
स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैवंचनैः ।।' [ र. श्रा. १२४ ] ॥३२॥ अथ क्षमणकरणाकरणयोः फलमाह
तोर्णो भवार्णवस्तैर्ये क्षाम्यन्ति क्षमयन्ति च ।
क्षाम्यन्ति न क्षमयतां ये ते दीर्घाजवजवाः॥३३॥ स्पष्टम् ॥३३॥
योग्यायां वसतौ काले स्वागः सर्व स सूरये।
निवेद्य शोधितस्तेन निःशल्यो विहरेत्पथि ॥३४॥ अथ क्षपकस्यालोचनादिविधिमाह
विशुद्धिसुधया सिक्तः स यथोक्तं समाधये । प्रागुदग्वा शिरः कृत्वा स्वस्थः संस्तरमाश्रयेत् ॥३५॥
रागसे या द्वेषसे या ममत्व भावसे जिसे दुःख दिया है-कष्ट पहुँचाया है, तीर्थको जानेवाला उससे मन-वचन-कायसे क्षमा माँगे। और जिसने अपनेसे वैर किया हो-अपनेको कष्ट पहुँचाया हो उसे मन-वचन-कायसे क्षमा प्रदान करे ॥३२॥
विशेषार्थ-आचार्य समन्तभद्रस्वामीने कहा है-स्नेह, वैर, परिवार, परिग्रहको छोड़कर शुद्ध मन होकर अपने स्वजनों और परिजनोंको क्षमा करके प्रियवचनोंके द्वारा उनसे क्षमा मांगे ॥३२॥
क्षमा करने और करानेका फल कहते हैं
जो अपराधीको क्षमा करते हैं और उनसे जिनके प्रति अपराध हुआ है उनसे क्षमा माँगते हैं उन्होंने संसाररूपी समुद्रको पार कर लिया है। किन्तु जो क्षमा माँगनेपर भी क्षमा नहीं करते वे चिरसंसारी हैं अर्थात् उनका संसार जल्द समाप्त होनेवाला नहीं है ।।३३।।
अब क्षपककी आलोचनाकी विधि कहते हैं
वह क्षपक आलोचनाके योग्य स्थान और योग्य कालमें निर्यापकाचार्य के सामने अपने समस्त व्रत आदिमें लगे अतिचारोंको निवेदन करे। इसीका नाम आलोचना है। और आचार्यके द्वारा प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त आदि विधिसे दोषोंका शोधन करके, माया आदि तीन शल्योंसे रहित होकर रत्नत्रयरूप मार्गमें विहार करे ॥३४॥
विशेषार्थ-समाधिमरणमें बैठनेसे पहले निर्यापकाचार्यके सामने अपने दोषोंका निवेदन करके उनके द्वारा बतलायी गयी विधिसे उनका शोधन करना चाहिए। और तब निःशल्य होकर समाधिमें लगना चाहिए ॥३४॥
इसके बाद समाधिके लिए बनाये संस्तरेपर लेटनेकी विधि कहते हैं
मन और शरीरकी निर्मलता अथवा प्रायश्चित्तविधानरूप विशुद्धिरूपी अमृतसे सिंचित हुआ वह क्षपक आगमके अनुसार समाधिके लिए पूरब या उत्तर दिशाकी ओर सिर करके निराकुल हो, संस्तरेपर लेट जाये ॥३५॥
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