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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय)
३२१
अथ निर्यापकबलाद्धावितात्मनां समाधिमरणान्तरायाभावं दर्शयति
समाधिसाधनचणे गणेशे च गणे च न ।
दुर्दैवेनापि सुकरः प्रत्यूहो भावितात्मनः ॥२७॥ स्पष्टम् ॥२७॥ अथ श्लोकद्वयेन समाधिमरणमाहात्म्यं स्तुवन्नाह
प्राग्जन्तुनाऽमुनाऽनन्ताः प्राप्तास्तद्भवमृत्यवः।
समाधिपुण्यो न परं परमश्चरमक्षणः ॥२८॥ अमुना --संसारिणा । तद्भवमृत्यवः-भवान्तरप्राप्तेरनन्तरोपश्लिष्टपूर्वभवविगमनं तद्भवमरणमाख्यायते ॥२८॥
परं शंसन्ति माहात्म्यं सर्वज्ञाश्चरमक्षणे ।
यस्मिन् समाहिता भव्या भञ्जन्ति भवपञ्जरम् ॥२९॥ स्पष्टम् ॥२२॥ अथ संन्यासार्थ क्षेत्रविशेषस्वीकारमाह
पूर्वक अपने निर्मल चित्स्वरूप में लीन होकर प्राणत्याग करनेपर नाना प्रकारके सांसारिक अभ्युदयोंको भोगकर मुक्तिका भागी होता है ॥२६॥
विशेषार्थ-आगे ३०वें श्लोकसे जिस विधिका कथन करनेवाले हैं उस विधिको करके स्थिर चित्तसे शुद्ध स्वात्मामें लीनतापूर्वक प्राण छोड़नेसे ही सब कुछ प्राप्त हो सकता है ॥२६॥
___ आगे बतलाते हैं कि समाधिमरण कराने में दक्ष निर्यापककी सहायतासे आत्माकी भावना करनेवालेकी समाधिमें विघ्न नहीं आता ॥२७॥
निर्यापकाचार्य और संघके समाधिके सम्पादन में दक्ष होनेपर अपने आत्माकी भावना करनेवाले समाधिसाधककी समाधिमें पूर्वकृत अशुभ कर्मके द्वारा भी विघ्न डालना सरल नहीं है। अर्थात् निर्यापकाचार्य और संघ अनेक समाधिमरण करानेका अनुभवी होनेके रूपमें प्रसिद्ध हो तो अन्यकी तो बात ही क्या दुर्दैव भी विघ्न नहीं डाल सकता ॥२७॥
दो श्लोकोंसे समाधिमरणका माहात्म्य कहते हैं
इस संसारी जीवने इससे पहले अनन्त तद्भव मरण पाये किन्तु समाधिसे पवित्र उत्कृष्ट अन्तिम क्षण प्राप्त नहीं किया। अर्थात् इससे पहले भी यह जीव अनन्त बार जन्मा और अनन्त बार मरा। नया जन्मधारणसे लगे हए पूर्वभवके विनाशको तद्भव मरण कहते हैं। अतः यह जीव इससे भी पहले अनन्त बार मर चुका है। किन्तु मरणका अन्तिम क्षण समाधिसे पवित्र हुआ हो अर्थात् समाधिपूर्वक मरण कभी नहीं पाया। इस समाधिसे पवित्र अन्तिम क्षणको चरम कहा है क्योंकि वह क्षण संसारके कारणभूत कर्मोको मूलसे नष्ट करने में समर्थ है ॥२८॥
सर्वज्ञ देव अन्तिम क्षणमें उत्कृष्ट माहात्म्य बतलाते हैं, जिसमें समाधिको प्राप्त हुए भव्य जीव इस संसाररूपी पिंजरेको तोड़ देते हैं ।।२९।।
अब समाधिके लिए विशेष क्षेत्र अपनानेको कहते हैंसा.-४१
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