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________________ ३१८ धर्मामृत ( सागार) कार्यो मुक्तौ दवीयस्यामपि यत्नः सदा व्रते। वरं स्वः समयाकारो व्रतान्न नरकेऽवतात् ॥२०॥ समयाकारः-मुक्तेरविकालयापना । व्रतात्-व्रतानुष्ठानाजितपुण्यविपाकात् ।।२०।। अथ भक्तप्रत्याख्यानयोग्यतामाह धर्माय व्याधिभिक्षजरादौ निष्प्रतिक्रिये। त्यक्तु वपुः स्वपाकेन तच्च्युतौ चाशनं त्यजेत् ॥२१॥ निःप्रतिक्रिये-प्रतीकाररहिते । उक्तं च 'व्याधिश्च दुरुच्छेदो जरा च चारित्रयोगहानिकरी। सुरनरतियंग्जनिता यस्यात्युग्रा भवेयुरुपसर्गाः ॥ विद्वेषिणोऽनुकूलाश्चारित्रविघातहेतवो यस्य । दुर्भिक्षक्षीणे वा गुरुतरवनगमनपीडितो यश्च ।। चक्षुर्वीक्षाविकलं श्रोत्रं बाधिर्यवाधितं यस्य । जङ्घाबलहीनतया यो न समर्थो विहर्तुं वा ।। प्रत्यासीदति हेतावेवंभूते मृतेः परस्मिश्च । प्रत्याख्यातुं भक्तं सोऽहंति विरतोऽप्यविरतश्च ।।' [ तच्च्युतौ-वपुषि स्वयमेव च्यवमाने । एतेन शरोरत्यजनच्यवनच्यावनविषयं त्रिविधं भक्तप्रत्याख्यानमरणमन्वाख्यातं बोद्धव्यम् ॥२१॥ ApropARAA/ मुक्तिके अत्यन्त दूर होते हुए भी सदा व्रतमें यत्न करना चाहिए। क्योंकि व्रत धारण करके मुक्ति प्राप्त होनेसे पहलेका समय स्वर्ग में बिताना श्रेष्ठ है, हिंसा आदिके द्वारा पापका अर्जन करके नरकमें समय बिताना श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात् मुक्ति दूर होनेसे यदि व्रताचरण नहीं करेंगे तो हिंसा आदिके द्वारा पापकर्मका बन्ध करेंगे। पाप करके नरक समय बितानेसे क्या पुण्य करके स्वर्गमें समय बिताना उत्तम नहीं है ? ॥२०॥ भक्तप्रत्याख्यान कब करना चाहिए, यह बताते हैं जिनको दूर करनेका कोई उपाय नहीं है ऐसे धर्मविनाशके कारण व्याधि, दुर्भिक्ष, ज्वर या उपसर्गादि उपस्थित होनेपर अपने साथ दूसरे भवमें धर्मको ले जानेके उद्देशसे शरीरको त्यागनेके लिए भोजनका त्याग कर दे। तथा कालक्रमसे स्वयं आयुका क्षय होनेसे शरीरके छटनेका समय आनेपर भोजनका त्याग कर दे । 'च' शब्दसे घोर उपसर्ग आदिके कारण शरीर छूटता जावे तब भी भोजनका त्याग कर दे ॥२१॥ विशेषार्थ-कहा है-'न दूर होने योग्य व्याधिके होनेपर, चारित्रयोगको हानि पहुँचानेवाले बुढ़ापेके आनेपर या देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत घोर उपसर्ग उपस्थित होनेपर, अथवा चारित्रका घात करने में कारण शत्रुओं और मित्रोंके होनेपर या दुर्भिक्षके कारण शरीरके क्षीण होनेपर अथवा गहन वनमें फंस जानेपर या दृष्टि से दिखाई न देनेपर अथवा कानोंसे सुनाई न पड़नेपर अथवा पैरोंके शक्तिहीन होने कारण विहार करने में असमर्थ होनेपर, ऐसे कारण उपस्थित होनेपर विरत हो या अविरत, भोजनका त्याग कर देनेका पात्र होता है। इसमें भक्तप्रत्याख्यानमरणके तीन प्रकार सूचित किये हैं। भोजनके त्यागपूर्वक जो मरण होता है उसे भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। पहला प्रकार है शरीर त्यजन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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