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________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) ३१७ ननु सुभावितमार्गस्यापि कस्यचित्समाधिमरणं न दृश्यते, कस्यचित्पुनरभावितमार्गस्यापि तदुपलभ्यते । तदनाप्तीयमिदमिति शङ्कमानं प्रति श्लोकद्वयमाह सम्यग्भावितमार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि । प्रतिरोधि सुदुर्वारं किंचिन्नोदेति दुष्कृतम् ॥१८॥ यदीत्यादि । उक्तं च 'मृतिकाले नरा हन्त सन्तोऽपि चिरभाविताः । पतन्ति दर्शनादिभ्यः प्राक्कृताशुभगौरवात् ॥' [ ] ॥१८॥ योत्वभावितमार्गस्य कस्याप्याराधना मृतौ । स्यादन्धनिधिलाभोऽयमवष्टभ्यो न भाक्तिकैः ॥१९।। भाक्तिकै:-जिनवचनाराधनपरैः। तदक्तम 'पूर्वमभावितयोगो यद्यप्याराधयेन्मृतौ कश्चित् । स्थाणो निधानलाभो निदर्शनं नैव सर्वत्र ॥' [ ] ॥१९॥ ननु दूरभव्यस्य व्रतं चरतोऽपि न मुक्तिः स्यात्तदलं तद्दवीयस्त्वे व्रतयत्नेन इत्यारेकायां समाधत्ते धनुधारी कैसा जो युद्धमें बाण चलाना भूल जाये। उसी तरह वह तपस्वी कैसा जो मरणके समय मनको स्थिर न रख सके ।।१७।। कोई शंका करता है कि जीवन-भर धर्मकी आराधना करने पर भी किसीका समाधिमरण नहीं देखा जाता। और जिसने जीवन में धमकी आराधना नहीं की है ऐसेका भी समाधिमरण देखा जाता है। अतः आपका कथन प्रामाणिक नहीं है। इसका दो दो इलोकोंसे समाधान करते हैं यदि समाधिका बाधक और सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी जिसको रोकना शक्य न हो ऐसा कोई पूर्वकृत अशुभ कर्म उदयमें न आवे तो चिरकाल तक सम्यक् रूपसे रत्नत्रयका. अभ्यास करनेवाला अन्त समयमें आराधक होता ही है ॥१८॥ विशेषार्थ-जीवन-भर धर्मका अभ्यास करनेवाले भी पूर्वजन्ममें अर्जित अशुभ कर्मकी बलवत्तासे मरते समय सम्यग्दर्शन आदिसे च्युत हो जाते हैं अतः समाधिमरण नहीं कर पाते ॥१८॥ किन्तु धर्मकी आराधना न करनेवाले किसीके मरते समयमें जो आराधना देखी जाती है वह तो अन्धे मनुष्यको निधिलाभके समान है। जिनधर्मपर श्रद्धा रखनेवालोंको उसका आग्रह नहीं करना चाहिए ॥१९॥ विशेषार्थ-यद्यपि पहलेसे रत्नत्रयकी आराधना न करनेवाला कोई मरते समय आराधना करे यह सम्भव है । जैसे किसी अन्धेको निधि मिल जाये या लूंठमें-से किसीको निधिका लाभ हो जाये । किन्तु इसे सर्वत्र उदाहरणके रूपमें नहीं माना जा सकता। अत: जिनवचनको प्रमाण मानकर जीवन भर धर्मसाधनके साथ समाधिमरणके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।।१९।। कोई शंका करता है कि व्रताचरण करनेपर भी दूरभव्यकी मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्तिके दूर रहते हुए व्रताचरण व्यर्थ है ? इसका समाधान करते हैं१. यह श्लोक किसी भी मुद्रित प्रतिमें नहीं है । श्लोक १८ की टोकामें मिल गया है। -सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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