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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) अथ समाधिमरणार्थ शरीरोपस्कारविधिमाह
अन्नैः पुष्टो मलैदुष्टो बेहो नान्ते समाधये ।
तत्कयो विधिना साधोः शोध्यश्चायं तदीप्सया ॥२२॥ अन्नैरित्यादि । उक्तं च
'देहम्मि असंलिहिए सह सादाउहिं खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्ठज्झाणं सरीरिणो चरमकालम्मि ॥' [
तथा
'पानक भा .. ... ... ... ... .." शोधनाय सत्तपसा। मधुरं पाययितव्यो मन्दं च विरेचनं कार्यम् ।। बस्त्यानाहाद्यैरपि कर्तव्यं जठरशोधनममोघम् ।
उत्पादयत्प्रपीडां पुरीषमुदरस्थितं.... ... ॥' [ ] ॥२२॥ अथ कषायकर्शनं विना कायकर्शनस्य नष्फल्यं समर्थयते
सल्लेखनाऽसंलिखतः कषायान्निष्फला तनोः ।
कायोऽजडैदण्डयितु कषायानेव दण्डयते ॥२३॥ अजडैः-बधैः । उक्तं च
'तथा श्रुतमधीष्व शश्वदिह लोकपङ्क्ति बिना, शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः । कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान्,
शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तपःशास्त्रयोः ।।' [ आत्मानु. १९० ] ॥२३॥ जब कोई ऐसा रोगादि हो जाता है जिसका इलाज अशक्य है तो शरीरको छोड़ने के लिए भोजनका त्याग कर दिया जाता है। दूसरा प्रकार है शरीर च्यवन । जब आयु पूरी होकर शरीर छूटनेका समय आता है तो भोजन त्याग दिया जाता है। तीसरा प्रकार है शरीर च्यावन । घोर उपसर्ग आदिसे अचानक शरीर छूटता जान पड़े तो भोजन त्याग दिया जाता है ॥२१॥
समाधि मरणके लिए शरीरका संस्कार करनेकी विधि कहते हैं
यतः आहारसे पुष्ट और वात-पित्त-कफके दोषसे युक्त शरीर मरते समय समाधिके योग्य नहीं होता। इसलिए समाधिकी इच्छासे साधु सल्लेखनाकी विधिसे शरीरको कृश करे और योग्य विरेचन वस्तिकर्म (एनिमा) आदिके द्वारा पेटके मलको दूर करके शुद्ध करे ॥२२॥
विशेषार्थ-यदि शरीरको पहलेसे कृश न किया जाये तो अन्तिम समयमें शरीरधारीको आर्तध्यान होता है, जल्दी शरीर छूटता नहीं है । अतः शरीरशोधनके लिए दूध आदि मधुर पेय देना चाहिए तथा हलका विरेचन करना चाहिए। पेटकी शुद्धिके लिए वस्तिकर्म (एनिमा) करना चाहिए | क्योंकि पेट में यदि मल होता है तो वह पीड़ा देता है ॥२२॥
आगे कषायको कृश किये बिना शरीरके कृश करनेको निष्फल बतलाते हैं
कषायोंको कृश न करनेवाले साधुका शरीरको कृश करना व्यर्थ है । क्योंकि ज्ञानी जन कषायोंके निग्रह के लिए ही शरीरका निग्रह करते हैं ॥२३॥
विशेषार्थ-आचार्य गुणभद्रने कहा है-इस लोकमें लोकपूजाका विचार न करके इस प्रकार निरन्तर शास्त्रका अध्ययन कर तथा शरीरको कृश करनेके साधनोंके द्वारा कृश कर
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