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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) ३०१ स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा। मौनेन दशंयित्वाङ्गं लाभालाभे समोऽचिरात् ॥४१॥ स्थित्वा-उद्भीभूत्वा ॥४१॥ निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेभिक्षोधुक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यातद्भक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक् ॥४२॥ मनाक्-अल्पम् । बही तु भिक्षिते सति वाऽन्यान्नं न भुञ्जीत इति भावः ॥४२॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥४३॥ चरेत्-गोवद् भुञ्जीत इति भावः ॥४३॥ आकाङ्क्षन्संयमं भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् ॥४४॥ अदपं:-विद्यातिशयाद्यनाहितमदः ॥४४॥ ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चविधम । गृह्णीयाद्विधिवत्सवं गुरोश्वालोचयेत्परः ॥४५॥ प्रत्याख्यानं-प्रतीपमभिमुखं ख्यापनमभिधानं वा । सर्व-गमनात्प्रभृति स्वचेष्टितम् ॥४५॥ श्रावक, श्रावकके घर जाकर, उसके आँगन में खड़े होकर 'धर्म लाभ' कहकर भिक्षाकी प्रार्थना करे । अथवा मौन पूर्वक अपना शरीर श्रावकको दिखाकर, भिझाके मिलने या न मिलने में समभाव रखते हुए शीघ्र ही उस घरसे निकलकर भिक्षाके लिए दूसरे घरमें, जिसमें अभी भिक्षाके लिए नहीं गया हो, जावे। किसी श्रावक के द्वारा भोजनका अनुरोध करने पर अन्य गृहोंसे भिक्षामें जो थोड़ा भोजन मिला हो उसे जीमकर शेष उस घरसे लेकर जीमे । अर्थात् यदि भिक्षामें अन्य गृहोंसे पर्याप्त भोजन मिला हो तो किसीके अनुरोध करने पर उसका भोजन नहीं जीमना चाहिए । जो मिला है वही खाना चाहिए। यदि कोई भोजनका अनुरोध न करे तो अपने उदरकी पूर्ति के लायक भिक्षा प्राप्त होने तक भिक्षाकी प्रार्थना करे । और जहाँ प्रासुक जल प्राप्त हो वहाँ शोधन करके उस भिक्षाको ऐसे खावे जैसे गाय चरती है अर्थात् स्वाद आदिका विचार न करके खा लेवे ।।४१-४३।। संयम अर्थात् प्राणिरक्षाकी अभिलाषा रखनेवाला प्रथम उत्कृष्ट श्रावक गर्व छोड़कर भिक्षाके पात्रको धोने आदिमें स्वयं प्रवृत्ति करे। ऐसा न करने पर महान असंयम होता है। विशेषार्थ-प्रथम उत्कृष्ट श्रावकको अपनी भिक्षाका पात्र स्वयं ही माँजना धोना चाहिए। इतना ही नहीं अपना आसन भी स्वयं करे, जठन भी स्वयं उठावे । उसे इसमें अपने ज्ञान चारित्र आदिका कोई मद नहीं करना चाहिए। शिष्य या श्रावक आदिसे ये काम कराने में महान असंयम है ।।४४|| भोजन कर लेने के बाद गुरुके समीपमें विधि पूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करे । और गुरुके सामने भोजन के लिए जाने से लेकर अपनी सब चेष्टाओंकी आलोचना करे। तथा 'च' शब्दसे गोचरी सम्बन्धी प्रतिक्रमण भी करे ॥४५॥ विशेषार्थ-आचार्य वसुनन्दीने प्रथम उत्कृष्ट श्रावककी उक्त भिक्षाचर्याका विधान करनेके बाद लिखा है कि यदि इस प्रकार घर-घरसे भिक्षा माँगना न रुचे तो एक घरसे ही भिक्षा लेने वाला चर्याके लिए घरमें प्रवेश करें। मुद्रित पाठसे अर्थ स्पष्ट नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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