SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ my ३०२ धर्मामृत ( सागार ) यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमुन्यसौ । भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ॥४६॥ अनुमुनि-ऋषेः पश्चात् ॥४६॥ । वसेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषेत गुरूंश्चरेत् । तपो द्विधाऽपि दशधा वैयावृत्यं विशेषतः ॥४७॥ मुनिवने-ऋष्याश्रमे । द्विधा-बाह्यमाभ्यन्तरं च । उक्तं च 'एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो। वत्थेगधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ।। धम्मिल्लाणवणयणं करेदि कत्तरि छुरेण वा पठमो । ठाणादिसु पडिलेहदि मिदोवकरणेण य अदप्पो ।। भुंजेदि पाणिपत्तम्मि भायणि वा सई समुपविट्ठो। उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणदि पव्वेसु ।। पक्खालिऊण पत्तं पविसदि चरियाए पंगणे ठिच्चा । भणिऊण धम्मलाहं याचिदि भिक्खं सई चेव ।। सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तदो। अण्णम्मि गिहे वच्चदि दरिसदि मौणेण कायं वा ॥ यदि अद्धवहे कोइवि भणेदि इत्थेव भोयणं कुणह । भोत्तूण निययभिक्खं तच्छेल्लं भुञ्जए सेसं ॥ अह ण भणदि तो भिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्जो पासुअं सलिलं ॥ आशाधरजीने उसके आधारसे प्रथमके भी दो भेद कर दिये हैं एक अनेक घरसे भिक्षा लेनेका नियमवाला और दूसरा एक घरसे ही भिक्षा लेनेका नियमवाला। ऊपर पहलेकी चर्याका कथन है ॥४५|| इस प्रकार अनेक घरोंसे भिक्षा लेनेका नियमवाले प्रथम उत्कृष्ट श्रावककी भोजन विधि कहकर अब एक घरसे भिक्षा लेनेके नियमबालेकी भोजनविधि कहते हैं जिस प्रथम उत्कृष्ट श्रावकके एक ही घरसे भिक्षा लेनेका नियम है वह मुनियोंके पश्चात् दाताके घर जाकर भोजन करे । यदि भोजन न मिले तो नियमसे उपवास करे ॥४६।। उसकी विशेष विधि प्रथम उत्कृष्ट श्रावक सर्वदा मुनियोंके आश्रममें निवास करे। गुरुओंकी सेवा करे । और बाह्य तथा अभ्यन्तरके भेदसे दोनों प्रकारका तप, विशेषरूपसे दस प्रकारका वैयावृत्य तप करे ॥४७॥ विशेषार्थ-यह कथन एक भिक्षा और अनेक भिक्षावाले दोनों ही प्रथम उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए है। स्वामी समन्तभद्रने भी उन्हें मुनिवनमें रहने के लिए कहा है। पहले मुनि वनमें रहते थे अतः जिस वनमें मुनि रहते हों उसीमें उसे रहना चाहिए। गुरुओंकी सेवा और बाह्य तथा अभ्यन्तर तप करना चाहिए । वैयावृत्य अर्थात् साधुओंके कष्टोंको दूर करनेका कार्य विशेषरूपसे करना चाहिए। यद्यपि वयावृत्य अभ्यन्तर तपमें आ जाता १. तस्सण्णं-व. श्रा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy