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धर्मामृत (सागार)
स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययेत् ।
सितकौपीनसंव्यानः कर्तर्या वा क्षरेण वा ॥३८॥ स द्वेधा-उत्कृष्टः श्रावको द्विविधो भवति इति संबन्धः। तत्राद्यस्य प्रथम इत्यादिना प्रबन्धन विधिमभिधत्ते । श्मश्रूणि-कूर्च केशान् । संव्यानं-उत्तरीयवस्त्रम् ॥३८॥
स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः।
कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधम् ॥३९॥ स्थानादिषु-उद्भिभावोपवेशन-संवेशनादिनिमित्तम् ।।३९।।
स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने ।
स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥४०॥ समुपविष्ट:-निश्चलनिविष्टः ॥४०॥
६७ से ७७ श्लोक पर्यन्त ग्यारह श्लोकोंमें ग्यारह प्रतिमाओंका साधारण कथन किया है। किन्तु आठवें परिच्छेदमें षडावश्यकोंका वर्णन करनेके बाद कहा है कि उत्कृष्टश्रावकको ये षडावश्यक प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। आगे कहा है कि 'उत्कृष्टश्रावक वैराग्यकी परमभूमि और संयमका घर होता है। यह सिर, दाढ़ी, और मूंछके बालोंका मुण्डन कराता है। केवल लँगोटी या वस्त्रके साथ लँगोटी रखता है । एक ही स्थानपर अन्न जल ग्रहण करता है। यह पात्र हाथमें लेकर धर्मलाभ कहकर घर-घरसे भिक्षायाचना करता है।' इस तरह अमितगतिजीके अनुसार उत्कृष्ट श्रावक या तो अकेली लँगोटी रखता था या वस्त्र के साथ लँगोटी रखता था। आचार्य वसुनन्दीके श्रावकाचारमें इसी आधारपर उसके दो भेद हो गये। प्रथम एक वस्त्रधारी और दूसरा कौपीनधारी। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक छुरे या कैचीसे हजामत कराता है । उपकरणसे प्रतिलेखना करता है। बैठकर एक बार पाणिपात्रमें या भाजनमें भोजन करता है। पर्वमें नियमसे उपवास करता है। आगे उसके भोजनकी विधि कही है। उसीके अनुसार आशाधरजीने सब कथन किया है इसलिए यहाँ उसका अर्थ नहीं दिया जा रहा है ॥३७॥
उत्कृष्ट श्रावकके भेद और उनके लक्षण कहते हैं
उत्कृष्ट श्रावकके दो भेद हैं। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक एक सफेद लँगोटी और उत्तरीय वस्त्र धारण करता है। वह अपने दाढ़ी, मूंछ और सिरके बालोंको कैंची या छुरेसे कटावे ॥३८॥
वह प्रथम उत्कृष्ट श्रावक उठते-बैठते हुए जन्तुओंको बाधा न पहुंचानेवाले कोमल वस्त्र वगैरहसे स्थान आदिको साफ करे और दो अष्टमी दो चतुर्दशो इन चारों पों में चारों प्रकारके आहारके त्यागपूर्वक उपवास अवश्य करे ॥३९॥
__वह प्रथम उत्कृष्ट श्रावक निश्चल बैठकर हस्तपुट में या थाली आदि पात्रमें स्वयं भोजन करे । (आगे उसके भिक्षाकी विधिको कहते हैं)-हाथमें पात्र लिये हुए प्रथम उत्कृष्ट
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१. 'वैराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट: कारयत्येष मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः ।।
केवलं वा सवस्त्रं वा कौपीनं स्वीकरोत्यसो । एकस्थानान्नपानीयो निन्दागर्दापरायणः ।। स धर्मलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमम् । सपात्रो याचते भिक्षां जरामरणसूदनीम् ॥'
-अमि.धा. ८७३-७५ ।
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