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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) पञ्चाचार क्रियोद्युक्तो निष्क्रमिष्यन्नसौ गृहात् । आपृच्छेत् गुरून् बन्धून् पुत्रादींश्च यथोचितम् ॥ ३४॥ पञ्चेत्यादि । अत्रायं विधिः ६ अहो कालविनयोपधान बहुमानानिह्नवार्थव्यञ्जनतदुभयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचार ! न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि । तथापि त्वां तावदाश्रयामि यावत्त्वत्प्रसादाच्छुद्धमात्मानमुपालभे । अहो निःशङ्कतत्व-निः काङक्षितत्व-निर्विचिकित्स तत्व-निर्मूढदृष्टित्वोपबृंहण-स्थितिकरण वात्सल्य प्रभावनालक्षणदर्शनाचार ! शेषं पूर्ववत् । अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्च महाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषैषणादाननिक्षेपण-प्रतिष्ठापनसमितिलक्षणचारित्राचार ! शेषं पूर्ववत् । अहो अनशनावमोदयं वृत्तिपरिसंख्यान - रसपरित्याग- विविक्तशय्यासनकायक्लेश-प्रायश्वित्त-विनय वैयावृत्य-स्वाध्याय- ध्यानव्युत्सर्गलक्षणतपाचार ! शेषं प्राग्वत् । अहो समस्तेतराचारप्रवर्तक स्वशक्त्यनिगूहनलक्षणवीर्याचार ! शेषं प्राग्वत् । यथोचितं, तथाहि - [ अहो मदीयशरीरजनकस्यात्मन् अहो मदीयशरीरजनन्यात्मन् नायं मदात्मा युवाभ्यां जनि- ] तो भवतीति निश्चयेन युवां जानीत | तत आपृष्टो युवामिममात्मानं विमुञ्चत । अयमात्माऽद्योद्भित्रज्ञान ज्योतिरात्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । १२ तथा अहो मदीयशरीरबन्धुजनवर्तन आत्मानः अयं मदात्मा न किंचनापि युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं २९७ ज्ञानाचार आदि पाँच आचारोंके पालने में तत्पर दशम श्रावक घरसे निकलने की इच्छा होने पर गुरुजन, बन्धु बान्धव और पुत्र आदिसे यथायोग्य पूछे ||३४|| विशेषार्थं - घर छोड़ने की इच्छा होनेपर घरवालोंसे पूछकर घर छोड़ता है । और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारका पालन करनेके लिए उद्यत होता है । प्रवचनसारके चारित्र प्रकरणके प्रारम्भ में आचार्य अमृतचन्द्रने अध्यात्म शैलीमें इसकी विधि इस प्रकार कही है काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थसम्पन्नता, व्यंजन सम्पन्नता और तदुभयसम्पन्नता इन आठ अंगोंसे युक्त हे ज्ञानाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि शुद्ध आत्मा के तुम नहीं हो | तब भी मैं तबतक तुम्हें अपनाता हूँ जबतक तुम्हारे प्रसादसे शुद्ध आत्माको प्राप्त कर सकूँ। निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अंगोंसे युक्त हे दर्शनाचार ! मैं निश्चयसे जानता हूँ कि शुद्ध आत्माके तुम नहीं हो । फिर भी मैं तब तकके लिए अपनाता हूँ जबतक तुम्हारे प्रसादसे शुद्ध आत्मा को प्राप्त कर सकूँ । मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके कारण पाँच महाव्रत सहित कायगुप्ति, वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान निक्षेपणसमिति और प्रतिष्ठापनसमिति युक्त हे त्रयोदशविध चारित्राचार ! मैं निश्चयसे जानता हूँ कि शुद्ध आत्माके तुम नहीं हो । फिर भी तुम्हें तबतक के लिए अपनाता हूँ जबतक तुम्हारे प्रसादसे मुझे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो । हे अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, रूपबाह्य और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यानरूप अभ्यन्तर तपाचार ! मैं निश्चयसे जानता हूँ कि शुद्ध आत्मा के तुम नहीं हो । फिर भी तबतक तुम्हें अपनाता हूँ जबतक तुम्हारे प्रसादसे मुझे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो । इन समस्त आचारों के प्रवर्तक तथा अपनी शक्तिको न छिपाना लक्षणवाले हे वीर्याचार ! मैं निश्चयसे जानता हूँ कि शुद्ध आत्मामें तुम नहीं हो। फिर भी तबतक तुम्हें अपनाता हूँ जबतक तुम्हारे प्रसादसे मुझे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो ।' इस विधिसे वह पाँच आचारोंको अपनाता है । शुद्ध सा. - ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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