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________________ २९८ धर्मामृत ( सागार) जानीत तत आपुष्टा यूयं। शेषं प्राग्वत् । नवरं जनकमित्यस्य स्थाने बन्धुमिति पाठ्यम् । अहो मदीयशरीर पुत्रस्यात्मन् ममात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि । तत आपृष्टस्त्वमिममात्मानं विमुञ्च । ३ शेषं प्राग्वत् । नवरं बन्धुस्थाने जन्यं पठेत् । अहो मदोयशरीररमण्या आत्मन् मदात्मा न त्वां रमयतीति निश्चयेन त्वं जानीहि । तत आपष्टस्त्वमिममात्मानं विमञ्च । अयमात्माऽद्योद्धिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पतीत्यादि ॥३४॥ अथ विनयादाचारस्य भेदं विस्तरेण प्रागक्तमिदानी संक्षिप्य पुनराह सुदृनिवृत्ततपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥६५॥ वीर्यात्--स्वशक्तिमनिगुह्य । एतेन पञ्चमो वीर्याचारः सूच्यते ॥३५।। निश्चयनयसे आत्मामें न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है। आत्मा तो एक अखण्ड शुद्ध वस्तु है। उसको समझाने के लिए अखण्ड में भी जो खण्ड कल्पना की जाती है वह भी व्यव. हार है। इस व्यवहार द्वारा आत्माके स्वरूपको समझकर भेदरत्नत्रयके द्वारा आत्म-साधना की जाती है जो अभेदरत्नत्रयरूपमें क्रमशः परिणत होती है। शुद्धात्माके अनुभव द्वारा ही शुद्धात्माको प्राप्त किया जा सकता है। इन सब आचारोंके मूलमें शुद्धात्माकी अनुभूति गर्भित है । वह शुद्धात्म परिणतिका मूलकारण है अस्तु । अब घरके लोगोंसे पूछनेकी विधि कहते हैं-हे मेरे शरीरके जनककी आत्मा ! तथा मेरे शरीरकी जननीकी आत्मा! आप दोनोंसे मेरे इस आत्माका जन्म नहीं हुआ, यह आप निश्चयसे जानते हैं। अतः आप दोनों इस आत्माको घर छोड़ने की आज्ञा दें। आज इस आत्मामें ज्ञान ज्योति प्रकट हुई है। यह आत्मा अपने अनादि जनक आत्माके पास जा रहा है। मेरे शरीरके बन्धुजनोंमें रहनेवाले आत्माओ ! मेरी यह आत्मा तुम्हारा कुछ भी नहीं है यह तुम निश्चयसे जानो। अतः पूछनेपर मुझे जानेकी आज्ञा दो। हे मेरे शरीरके पुत्रके आत्मा! तुम मेरी आत्मासे पैदा नहीं हुए हो, यह तुम निश्चयसे जानो। अतः पूछनेपर इसे जानेकी आज्ञा दो। हे मेरे शरीरकी पत्नीकी आत्मा ! मेरी आत्मा तुम्हारे साथ रमण नहीं करती यह तुम निश्चयसे जानो। अतः पूछनेपर इसे मुक्त करो। अब यह आत्मा अपनी अनादि रमणी स्वानुभूतिके पास जा रहा है। इस तरह सबसे पूछकर घर छोड़े ॥३४॥ विनय और आचारके भेदको पहले विस्तारसे कहा है । अब सुखपूर्वक स्मरण कराने के लिए पुनः संक्षेपसे कहते हैं मोक्षकी इच्छा रखनेवाले श्रावकका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और सम्यक् तपके दोषों को दूर करने में जो प्रयत्न है उसे विनय कहते हैं। और अपनी शक्तिको न छिपाकर उन निर्मल किये गये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और सम्यक् तपमें जो प्रयत्न है उसे आचार कहते हैं ॥३५|| विशेषार्थ-यहाँ विनयसे आचारमें क्या भेद है इसे स्पष्ट किया है। सम्यग्दर्शन आदि चारोंके दोषों को दूर करके उन्हें निमल बनानेका जो प्रयत्न है वह विनय है। और उनके निर्मल हो जानेपर शक्तिके अनुसार जो उनका आचरण वह आचार है। इससे पाँचवें वीर्याचारका सूचन होता है क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि तो चार ही हैं उनका यथाशक्ति पालन पाँचवाँ वीर्याचार है ॥३५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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