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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय) २९५ 'प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षा दत्त' इति वदन् धर्मलाभशब्दोच्चारणसे हितं सुसाधुवत्समाचरतीत्येकादशीति ।' [ योगशा. टी. ३।१४८ ] 'गृहै तिष्ठेत्' एतेन स्वाङ्गाच्छादनाथं वस्त्रमात्रधारणममूर्छामस्य लक्षयति । तेन विना गृहेऽवस्थानानु- ३ पपत्तेः । तथा ह्यागमः 'मोत्तण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जदे सेसं । तत्थ वि मुच्छण्ण करेदि जाण सो सावओ णवमो ।' [ वसु. श्रा. २९९ ] ॥२९॥ ६ अथानुमतिविरतं सप्तश्लोक्या व्याचष्टे नवनिष्ठापरः सोऽनुमतिव्युपरतः त्रिधा। यो नानुमोदते ग्रन्थमारम्भं कर्म चैहिकम् ॥३०॥ नवनिष्ठापर:-दर्शनिकादिप्रतिमानवकानुष्ठाननिष्ठः । ग्रन्थं-धनधान्यादिकम् । आरम्भंकृष्यादिकम् । ऐहिक-~-विवाहादिकं । उक्तं च 'अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥' [ र. श्रा. १४६ ] तथा 'पुट्ठो वा पुट्ठो वा णियमपरेहि व सगिहकज्जम्मि । अणुमण्णं जो ण कुणदि विआण सो सावओ दसमो॥ [ वसु. श्रा. ३०० ] ॥३०॥ करता।८। नौ मास तक दूसरोंसे भी आरम्भ नहीं कराता ।९। दस मास तक अपने उद्देशसे बनाये गये आहारको ग्रहण नहीं करता ।१० ग्यारह मास तक परिग्रह छोड़कर रजोहरण आदि मुनिवेष को धारण करके केशोंको उखाड़ता है, स्वाधीन गोकुल आदिमें निवास करता है। 'प्रतिमाधारी श्रमणोपासकको भिक्षा दो' यह कहकर 'धर्म लाभ हो' ऐसा न कहकर साधुकी तरह भिक्षा करता है यह ग्यारहवीं प्रतिमा है ।११। (योगशास्त्र ३३१४८ की स्वोपज्ञ टीका)। इस तरह सिताम्बरोंमें पहली प्रतिमा धारणके बाद प्रत्येक प्रतिमामें उसकी संख्या के अनुसार मास तक रहकर आगे बढ़ना ही होता है । और ६६ मासके बाद मुनिपद धारण करना होता है । एक ही प्रतिमामें जीवन-भर रहनेका नियम नहीं है ।।२९॥ अब सात श्लोकोंसे अनुमतिविरतको कहते हैं दर्शनिक आदि नौ प्रतिमाओंके अनुष्ठानमें तत्पर जो श्रावक धनधान्य आदि परिग्रह, कृषि आदि आरम्भ और इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कर्ममें मन-वचन-कायसे अनुमति नहीं देता, वह अनुमति विरत है ॥३०॥ विशेषार्थ-आचार्य समन्तभद्रने भी आरम्भ, परिग्रह और ऐहिक कार्यों में जिसकी अनुमति नहीं है उसे अनुमतिविरत कहा है। चारित्रसारमें आहार आदि आरम्भों में अनुमति न देनेवालेको अनुमतिविरत कहा है। आचार्य वसुनन्दिने कहा है जो स्वजनों और परजनोंके पूछनेपर भी अपने गृहसम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं देता वह अनुमतिविरत है । लाटी संहितामें भी ऐसा ही कहा है ॥३०॥ १. णरहितं-यो. टी. ३।१४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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