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________________ २९४ धर्मामृत ( सागार) एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं मोहाभिभवहानये । किंचित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन्सुधीः ॥२९॥ व्युत्सृज्य-विशेषेण विविधं चारु भृशं त्यक्त्वा। मोहाभिभवः-मोहेन ममत्वेन अभिभवः उपेक्षा शैथिल्यं येन पृष्टोऽपृष्टो वा आरम्भादो पुत्रादेरनुमति दाप्यते । किचित्कालं। एतेन सिताम्बरपरिकल्पितं प्रतिमासु कालनियमं निराकरोति । तथाहि तद्ग्रन्थः-'शङ्कादिदोषरहितं प्रशमादिलिङ्गं स्थैर्यादिभूषणं ६ मोक्षमार्गप्रासादपीठभूतं सम्यग्दर्शनं भयलोभलज्जादिभिरप्यनतिचरन्मासमात्रं सम्यक्त्वमनुपालयतीत्येषा प्रथमा प्रतिमा। द्वौ मासौ यावदखण्डितान्यविराधितानि च पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितानि द्वादशापि व्रतानि पालयतीति द्वितीया। श्रीन्मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालयतीति तृतीया। चतुरो मासाश्चतुष्पा पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितोऽखण्डितं प्रोषधं पालयतीति चतुर्थी। पञ्चमासांश्चतुष्पां गृहे तद्द्वारे चतुष्पथे वा परिषहोपसर्गादिनिष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालथन् सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी । एवं वक्ष्यमाणास्वपि प्रतिमासू पूर्वपूर्वप्रतिमानुष्ठाननिष्ठता अवसे या। नवरं षण्मासान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी। सप्तमासान सचित्ताहारान् परिहरतीति सप्तमी । अष्टौ मासान् स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्टमी। नवमासान् प्रेष्यैरप्यारम्भं न कारयतीति नवमी । दशमासानात्मार्थनिष्पन्नमाहारं न भुङ्क्ते इति दशमी। एकादशमासांस्त्यक्तसङ्गो रजोहरणादिमुनिवेषधारी कृतकेशोत्साटः स्वायत्तेषु गोकुलादिषु वसन् इस प्रकार तत्वज्ञानसे सम्पन्न नवम श्रावक समस्त चेतन-अचेतन परिग्रहको छोड़कर ममत्वभावसे होने वाली संयममें शिथिलताको दूर करने के लिए उपेक्षाका चिन्तवन करते हुए कुछ समय तक घरमें रहे ॥२९॥ विशेषार्थ-नवम प्रतिमाधारी श्रावक ममत्व भावको हटाने के लिए सर्वस्वका त्याग करके भी तत्काल घर नहीं छोड़ता। कुछ समय तक उदासीनताका अभ्यास करते हुए घर में ही रहता है । ममत्वभाव होनेसे ही अभी वह आरम्भ आदिमें पुत्र आदिको अनुमति देता है। इसीको दूर करने के लिए वह घर में रहता है। घर में रहनेसे यह भी धोतित होता है कि वह अपने शरीरको ढांकनेके लिए वस्त्र मात्र धारण करता है। किन्तु उसमें भी मूर्छा नहीं रखता, जैसा आचार्य वसुनन्दीने अपने श्रावकाचारमें कहा है। यहाँ जो कुछ काल घरमें रहने के लिए लिखा है उससे सिताम्बराचार्योंने जो नियम किया है कि पहली प्रतिमाका पालन एक मास, दूसरीका दो मास, इसी तरह नौवीं प्रतिमावाला नौ मास पालन करता है उस नियमका निराकरण होता है। पं. आशाधरजीने अपनी उक्त टीका ज्ञानदीपिकामें सिताम्बरोंके मतका कथन किया है। जो श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रसे उद्धृत हैं उसमें कहा है-भय, लोभ और लज्जा आदिसे अतिचार न लगाते हुए एक मास तक सम्यक्त्वका पालन करना पहली प्रतिमा है। दो मास तक पहली प्रतिमाके अनुष्ठानके साथ निरतिचार बारह व्रतोंको पालना दूसरी प्रतिमा है।२। तीन मास तक पूर्वोक्त प्रतिमाओंके अनुष्ठानके साथ प्रमाद छोड़कर दोनों समय सामायिक करना तीसरी प्रतिमा है ।३। चार मास तक चारों पर्वो में पूर्वप्रतिमाके अनुष्ठान के साथ अखण्डित प्रौषधका पालन करना चतुर्थ प्रतिमा है।४। पाँच मास तक चारों पत्रों में घरमें या घरके द्वारपर या चौराहे पर परीषह उपसर्ग आदि में निश्चल कायोत्सर्गपूर्वक पूरी रात स्थिर रहना पाँचवीं प्रतिमा है ।५। इसी प्रकार आगेकी प्रतिमाओंमें भी पूर्व-पूर्व प्रतिमाओंके अनुष्ठानसे युक्त जानना चाहिए । छह मास तक ब्रह्मचारी रहता है यह छठी प्रतिमा है ।६। सात मास तक सचित्त आहारका त्यागी होता है ।७। आठ मास तक स्वयं आरम्भ नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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