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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय) २९३ उपस्कुरुते-गृहादिममत्वछेदेनातिशयमादते । शत्रु:-शातयिता इष्टविघातित्वात् । तथा चावोचत्स्वयमेव सिद्धयङ्के 'पुत्रः स येनोढभरेण तातो लघुकृतोकशिराधिरोहते (?) । सौरिस्तु येन स्वभरोपरोपाद्गुरूकृतो लोकतलं प्रगच्छेत् ॥' ॥२६॥ तदिदं मे धनं धर्म्य पोष्यमप्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदत्तिहि परं पथ्या शिवाथिनाम् ॥२७॥ धम्य-चैत्यालयपात्रदानादि । पोष्यं-गृहिणीमातृपित्रादि । सकलदत्तिः अन्वयदत्यपराभिधाना। पथ्या-पथोऽनपेता रत्नत्रयानुगतेरित्यर्थः ॥२७॥ विदीर्णमोहशार्दूलपुनरुत्थानशकिनाम् । त्यागक्रमोऽयं गृहिणां शक्त्यारम्भो हि सिद्धिकृत् ॥२८॥ विदीर्णः-तत्तन्निष्ठासौष्ठवेन भिन्नः ॥२८॥ विशेषार्थ-ऐसा कथन है कि जो जन्म लेकर वंशको पवित्र करता है वह पुत्र है। अतः जब पिता घरबार छोड़कर अपनी आत्माको कर्मबन्धनसे मुक्त करना चाहता हो तब घरका भार सम्हालकर पिताको आत्मसाधनामें सहयोग देनेवाला ही वास्तवमें पुत्र कहलानेके योग्य है । जैसे भगवान् ऋषभदेवका जीव पूर्वभवमें सुविधि नामक राजा हुआ था और उसकी पूर्वभवकी पत्नी श्रीमतीके जीवने सुविधिके पुत्र केशवके रूप में जन्म लिया था। राजाका अपने पुत्रसे अत्यधिक स्नेह था। उसीके कारण वह घरमें ही रहकर उत्कृष्ट श्रावकके व्रतोंका पालन करता था और केशव इसमें उसकी पूरी सहायता करता था । अन्तमें पिता और पुत्रने दिगम्बरी दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण किया। ऐसा पुत्र ही वास्तवमें पुत्र कहलानेके योग्य होता है ॥२६॥ __ इसलिए मेरा धन, धर्मस्थान, चैत्यालय, दानशाला आदि, तथा पोष्य माता, पिता, पत्नी आदिको अपने संरक्षणमें लेओ। आगममें कही गयी यह सकलदत्ति मुमुक्षुओंके लिए अत्यन्त हितकारी है ॥२७॥ विशेषार्थ-प्रथम अध्यायमें प्रकारान्तरसे दानके पात्रदत्ति, समक्रियादत्ति, अन्वयदत्ति और दयादत्ति ये चार भेद, दान जिन्हें दिया जाता है उनकी अपेक्षासे कहे थे। इस सकलदत्तिको ही अन्वयदत्ति कहते हैं। सब कुछ दान कर देनेसे इसका नाम सकलदत्ति है और यह दान अपने वंशमें किया जाता है इसलिए इसे अन्वयदत्ति कहते हैं। इसके बिना मोक्षके मार्गमें चलना दुष्कर है । इसीसे इस सर्वस्व त्यागको मोक्षार्थियोंके लिए हितकर कहा है ॥२७॥ ____प्रथमादि प्रतिमाओंमें की जानेवाली आत्माकी आराधनाके द्वारा जिनका मोहरूपी सिंह छिन्न-भिन्न तो हो गया है किन्तु फिर भी जिन्हें उसके उठ खडा होनेकी आशंका है उन गृहस्थोंके त्यागका धीरे-धीरे बाह्य और अन्तरंग परिग्रहको छोड़नेका यह क्रम है। क्योंकि शक्तिके अनुसार किया गया इष्ट अर्थकी साधनाका उपक्रम इष्ट अर्थका साधक होता है ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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