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________________ २९० धर्मामृत ( सागार) अथारम्भविरतं द्वाभ्यामाह निरूढसप्तनिष्ठोऽङ्गिघाताङ्गत्वात्करोति न । न कारयति कृष्यादीनारम्भविरतस्त्रिधा ॥२१॥ न कारयति पुत्रादीन् प्रत्यनुमतेः कदाचिन्निवारयितुमशक्यत्वात् मनोवाक्कायैः कृतकारिताभ्यामेव सावद्यारम्भानिवर्तत इत्यर्थः । कृष्यादीन्--कृषिसेवावाणिज्यादिव्यापारान् न पुनः स्नपनदानपूजाविधानाद्यारम्भान । तेषामङ्गिघाताङ्गत्वाभावात्प्राणिपीडापरिहारेणैव तत्संभवात् । वाणिज्याद्यारम्भादपि तथा संभवतस्तहि विनिवृत्ति न स्यादिति चेदेवमेतत् । तदुक्तम् 'सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ॥ [ रत्न. श्रा. १४४ ] वसुनन्दिसैद्धान्तस्त्वविशेषेणैवाह । यथा--- 'जं किंचिदिहारंभं बहु थोवं वा सया विवज्जन्तो। आरम्भणियंतमदी सो अट्ठम सावओ भणिओ॥' [ वसु. श्रा. २९८ ] ॥२१॥ और परमर्षि । अक्षीणऋद्धि तथा विक्रियाऋद्धिके धारियोंको राजर्षि कहते हैं। बुद्धिऋद्धि और औषधऋद्धिके धारियोंको ब्रह्मर्षि कहते हैं। आकाशचारी ऋषियोंको देवर्षि कहते हैं और केवलज्ञानीको परमर्षि कहते हैं ॥२०॥ दो इलोकोंके द्वारा आरम्भविरतका स्वरूप कहते हैं पहलेकी सात प्रतिमाओंके संयममें पूर्णनिष्ठ जो श्रावक प्राणियोंकी हिंसाका कारण होनेसे खेती, नौकरी, व्यापार आदि आरम्भोंको मन, वचन, कायसे न स्वयं करता है और न दूसरोंसे कराता है वह आरम्भविरत है ॥२१॥ विशेषार्थ-रोजगार-धन्धेके कामोंको आरम्भ कहते हैं क्योंकि उनसे जीवघात होता है। किन्तु दान-पूजा आदिको आरम्भ नहीं कहते; क्योंकि ये प्राणिघातके कारण नहीं हैं, प्राणियोंकी पीडाको बचाकर करनेसे ही दानपूजा सम्भव होती है। यदि व्यापार आदिमें भी प्राणिपीड़ा बचाना सम्भव होता तो उसका त्याग न कराया जाता। अतः यहाँ धार्मिक कार्योंका निषेध नहीं है । आरम्भका त्याग श्रावक मन, वचन, कायपूर्वक कृत और कारितसे करता है। अनुमतिका त्याग नहीं करता क्योंकि पुत्रादिको अनुमति देनेसे बचना कभी-कभी अशक्य हो जाता है। स्वामी समन्तभद्रने मन, वचन, काय या कृत-कारितका निर्देश नहीं किया है। जो हिंसाके कारण सेवा, खेती, व्यापार आदि आरम्भका त्यागी है वह आरम्भविरत है । आचार्य वसुनन्दिने 'जो कुछ भी थोड़ा या बहुत गृह सम्बन्धी आरम्भ है उसको सदाके लिए छोड़ देता है, उसे आरम्भत्यागी कहा है। लाटी संहितामें तो आरम्भत्यागक बहुत व्यापक रूप दे दिया गया है। लिखा है-'आठवीं प्रतिमासे पहले हिंसाके कामोंसे जैसे सचित्तके स्पर्शनसे या अपने हाथसे पानी भरनेसे अतीचार होता था। अब पानी आदिकी तरह जो सचित्त द्रव्य है उसे अपने हाथसे नहीं छूता । बहुत आरम्भकी तो बात ही क्या है ? अपने बन्धु वर्गके मध्यमें रहता है और मुनिकी तरह तैयार भोजनादि करता है। यदि कोई साधर्मों आमन्त्रित करे तो उसके घर भोजन करने में न कोई दोष है, न गुण है। व्रती होनेपर भी दसवीं प्रतिमासे पहले यह मनका मालिक होकर रहता है, वस्त्रोंका प्रक्षालन प्रासुकसे स्वयं करे या साधर्मीसे करावे । बहुत कहनेसे क्या? अपने लिए या दूसरेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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