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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय) mr १२ 1 'दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धस्नानं दिन प्रति । न खट्वाशयनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् । भूमौ केवलमेकाकी शयिता व्रतसिद्धये ॥ यावद्विद्यासमाप्तिः स्यात्तावदस्येदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूध्वं व्रतं तत्स्याद्यन्मूलं गृहमेधिनाम् ।।' [ महापु. ३८।११५-११७ ] इत्यादि प्रबन्धेना। पूर्वोक्तनित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः स द्वेधा जातितीर्थक्षत्रियभेदात् । तत्र जातिक्षत्रियाः क्षत्रियब्राह्मणवैश्यशूद्रभेदाच्चतुर्विधाः । तीर्थक्षत्रियाः स्वजीवितविकल्पादनेकभेदा भिद्यन्ते । वानप्रस्था अपरिगृहीतजिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यता भवन्ति । यथा-- 'देशप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्यादृषिः प्रोद्गतद्धिरारूढश्रेणियुग्मोऽजनि यतिरमगारोऽपरः साधुवर्गः। राजा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिविक्रियाऽक्षीणशक्ति प्राप्तो बुद्धयौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदो क्रमेण ॥' [ तत्क्रियाश्च प्राक् प्रबन्धेनोक्तास्तद्वद् । वर्णक्रियाश्च व्याख्याताः ॥२०॥ चाहिए। सफेद धोती, सफेद दुपट्टा उसका वस्त्र होता है। उस समय उस बालकको ब्रह्मचारी कहते हैं। वैभवशाली राजपुत्रको छोड़कर सब ब्रह्मचारी बालकोंको भिक्षावृत्तिसे निर्वाह करना चाहिए। राजपुत्र भी राजमहलमें जाकर अपनी माता आदिसे भिक्षा लेकर निर्वाह करता है। केवल शुद्ध जलसे प्रतिदिन स्नान करना, खाटपर न सोना, दूसरेके शरीरसे अपना शरीर न रगड़ना, पृथ्वीपर एकाकी शयन करना, जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो तबतक ऐसा करना आवश्यक है। विद्याध्ययनकी समाप्ति के बाद साधारण व्रतोंका तो पालन करता है किन्तु विद्याध्ययन कालके विशेष व्रत छूट जाते हैं। फिर आजीविकाके साथ गृहस्थाश्रममें प्रवेश करता है। विवाह के बाद उसे धन, धान्य, मकान आदि मिल जाता है और वह पिताकी आज्ञासे स्वतन्त्रतापूर्वक आजीविका करता है इसे उसकी वर्णलाभ क्रिया कहा है। गृहस्थ अवस्थामें वह पूर्वोक्त नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठान करता है। उसके दो भेद हैं-जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय । जातिक्षत्रिय क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके भेदसे चार प्रकारके होते हैं। तीर्थक्षत्रिय अपनी जीविकाके भेदसे अनेक प्रकारके हैं। पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें यह भेदकथन चारित्रसारके आधारपर क्रिया है। महापुराणमें यह कथन नहीं है । अस्तु । जब उसका पुत्र घरका भार संभालने में समर्थ हो जाता है तो वह उसपर भार सौंपकर तीसरा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करता है। घर छोडकर मात्र एक वस्त्र ध है। फिर वस्त्र आदिको भी त्याग कर दिगम्बर रूप धारण कर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करता है। जिसे भिक्षु आश्रम कहा है । जिनरूपधारी भिक्षु अनगार, यति, मुनि, ऋषि आदिके भेदसे अनेक प्रकारके होते हैं। सामान्य साधुओंको अनगार कहते हैं। उपशम या झपक श्रेणीपर आरूढ़ साधुओंको यति कहते हैं। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानियोंको मुनि कहते हैं । ऋद्धिधारियोंको ऋषि कहते हैं। उनके चार भेद हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि १. साधुरुक्त:-चा. सा. । सा.-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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