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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) २९१ यो मुमुक्षुरघादबिभ्यत्त्यक्तुं भक्तमपोच्छति । प्रार्तयेत्कथमसौ प्राणिसंहरणीः क्रियाः ॥२२॥ प्रवर्तयेत्--कुर्यात्कारयेच्च ॥२२॥ अथ परिग्रहविरतं सप्तश्लोकेन व्याचष्टे-- स ग्रन्थधिरतो यः प्राग्वतत्रातस्फुरद्धृतिः। नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ॥२३॥ प्राग्वतानि-दर्शनिकाद्यष्टप्रतिमानुष्ठानानि । 'स्वाचाराप्रतिलोम्येन लोकाचारं प्रमाणयदिति वचना- ६ सर्वत्र स्वस्वस्थानाविरोधेनैव पूर्वस्थानानुष्ठानमनुष्ठेयम् । उक्तं च 'बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः ।। [ र. श्रा. १४५ ] ॥२३॥ लिए जिसमें आरम्भका लेश भी हो, उस क्रियाको न करे।' इस तरह प्रारम्भमें आजीविकाविषयक आरम्भके त्यागको आरम्भविरत कहते थे। उत्तरकालमें खासकर लाटी संहिताके युगमें उसे बहुत विस्तार दे दिया गया। किसी पहलेके अन्य ग्रन्थ में ऐसा कथन नहीं है ॥२१॥ आगे आरम्भत्यागका समर्थन करते हैं जो मुमुक्ष पापसे डरता हुआ भोजन भी छोड़ना चाहता है वह जीवघातवाली क्रियाएँ कैसे स्वयं कर या करा सकता है ।।२२।। अब परिग्रहत्यागविरत प्रतिमाको सात इलोकोंसे कहते हैं पहलेकी दर्शन आदि प्रतिमा सम्बन्धी व्रतोंके समूहसे जिसका सन्तोष बढ़ा हुआ है वह आरम्भविरत श्रावक 'ये मेरे नहीं हैं और न मैं इनका हूँ' ऐसा संकल्प करके मकान, खेत आदि परिग्रहोंको छोड़ देता है उसे परिग्रहविरत कहते हैं ॥२३॥ विशेषार्थ-परिग्रह में जो ममत्व भाव होता है उसके त्यागपूर्वक परिग्रह के त्यागको परिग्रह विरत कहते हैं। ये मेरे नहीं हैं' और 'न मैं इनका हूँ' इसका मतलब है कि न मैं इनका स्वामी और भोक्ता हूँ और न ये मेरे स्वत्व और भोग्य हैं। इस संकल्पपूर्वक परिग्रहका त्याग किया जाता है। यही बात स्वामी समन्तभद्राचायने भी कही है कि दस प्रकारके बाह्य परिग्रहोंमें भमत्वभावको छोड़कर निर्ममत्वभावमें मग्न सन्तोषी श्रावक परिग्रहविरत है। चारित्रसारमें कहा है-परिग्रह क्रोधादि कषायोंकी, आत और रौद्रध्यानकी, हिंसा आदि पाँच पापोंकी तथा भयकी जन्मभूमि है, धर्म और शुक्लध्यानको पास भी नहीं आने देती ऐसा मानकर दस प्रकारके बाह्य परिग्रहसे निवृत्त सन्तोषी श्रावक परिग्रहत्यागी होता है। उक्त सभी कथन अन्तरंग परिग्रह के साथ बाह्य परिग्रहके त्यागको परिग्रह विरत कहते हैं। किन्तु आचार्य वसुनन्दी कहते हैं कि 'जो वस्त्रमात्र परिग्रहके अतिरिक्त शेष सब परिग्रहको छोड़ देता है और वस्त्र में भी ममत्व नहीं करता, वह नवम श्रावक जानो।' लाटी संहितामें कहा है-'जिसमें स्वर्ण आदि द्रव्यका सर्वथा त्याग माना गया है वह १. चारित्रसार-पृ. १९ । २. 'मोत्त ण बत्थमेत परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थवि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णव मो' ॥-वसु. श्रा., २९९ गा. । ३. 'नवमं प्रतिमास्थानं व्रतं चास्ति गृहाश्रये । यत्र स्वर्णादिद्रव्यस्य सर्वतस्त्यजनं स्मृतम् ॥ इतः पूर्व सुवर्णादि संख्यामात्रापकर्षणः । इतः प्रभृति वित्तस्य मूलादुन्मूलनं व्रतम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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