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________________ २८६ धर्मामृत ( सागार ) रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थमृतावपि । भजन्ति वशिनः कान्तां न तु पर्वदिनादिषु ॥१४॥ ऋतावेव--चतुर्थदिनस्नानानन्तरमेव । आवृत्त्या सन्तानार्थमेव न विषयसुखार्थम् । पर्वदिनादिषु । __आदिशब्देनामावस्याग्रहणादिषु ॥१४॥ अथ चारित्रसारादिशास्त्रमतेन रात्रिभक्तवतं निरुक्त्या लक्षयन रत्नकरण्डादिप्रसिद्धं तदर्थ कथयति-- रात्रिभक्तवतो रात्रौ स्त्रीसेवावर्तनादिह । निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतुराहारवर्जनात् ॥१५॥ रात्रिभक्तव्रत:--रात्रौ भक्तं स्त्रीभजनं व्रतयति प्रवर्तयतीति तथोक्तः । शास्त्रान्तरेषु तु रात्री भक्तं ९ चतुविधाहार व्रतयति निवर्तयति इति निरुच्यते । यथाह स्वामी 'अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ [ र. श्रा. १४२ ] ॥१५॥ १२ अथ ब्रह्मचर्यस्थानं व्याचष्टे-- तत्तादृसंयमाभ्यासवशीकृतमनास्त्रिधा। यो जात्वशेषा नो योषा भजति ब्रह्मचार्यसौ ॥१॥ तत्तादृक्संयमः--प्राक्प्रतिमाषट्कोक्तः । अशेषाः--मानवीर्दैवीस्तरश्चीस्तत्प्रतिकृतिश्च ॥१६॥ जितेन्द्रिय पुरुष रात्रिमें भी ऋतुकाल में ही अर्थात् रजोदर्शनसे आगेके चतुर्थ दिनके स्नानके अनन्तर ही स्त्रीका सेवन करते हैं। तथा ऋतुमें भी सन्तान उत्पन्न करनेके लिए ही स्त्रीका सेवन करते हैं, विषय सुखके लिए सेवन नहीं करते। तथा पर्व के दिनोंमें अर्थात् धर्म-कर्म के अनुष्ठानके दिनों अष्टमी आदिमें कभी भी स्त्रीका सेवन नहीं करते ॥१४॥ अब चारित्रसार आदि शास्त्रके मतसे रात्रिभक्तवतका निरुक्तिपूर्वक लक्षण करके रत्नकरण्डक आदिमें प्रसिद्ध उसके अर्थको कहते हैं चारित्रसार आदि शास्त्रोंका अनुसरण करनेवाले इस ग्रन्थमें रात्रिमें स्त्रीसेवनका व्रत लेनेसे रात्रिभक्तव्रत कहा जाता है। और अन्य रत्नकरण्डक आदि शास्त्रोंमें रात्रिमें चारों प्रकारके आहारके त्यागसे रात्रिभक्तत्रत कहा जाता है ॥१५।। विशेषार्थ-पहले लिख आये हैं कि छठी प्रतिमाके स्वरूपको लेकर ग्रन्थकारोंमें मतभेद है। छठी प्रतिमाका नाम रात्रिभक्तव्रत है। भक्तका अर्थ स्त्रीसेवन भी होता है जिसे भाषामें भोगना कहते हैं और भोजन भी होता है। इस ग्रन्थके मतसे जो रात्रि में स्त्रीसेवनका व्रत लेता है वह रात्रिभक्तत्रत है और रत्नकरण्डकके अनुसार जो रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है वह रात्रिभक्तवत है। उसमें कहा है कि जो रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य, लेह्य चारों प्रकारके आहारको नहीं खाता वह रात्रिभक्त विरत है ॥१५॥ अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं पहले छह प्रतिमाओंमें कहे गये और क्रमसे बढ़ते हुए संयमके अभ्याससे मनको वशमें कर लेनेबाला जो श्रावक-मन-वचन कायसे मानवी, दैवी, तिर्यंची और उनके प्रतिरूप समस्त स्त्रियोंको रात्रि अथवा दिनमें कभी भी नहीं सेवन करता है वह ब्रह्मचारी है ॥१६।। विशेषार्थ-जो ब्रह्ममें चरण करता है वह ब्रह्मचारी है। ब्रह्मके अनेक अर्थ हैंचारित्र, आत्मा, ज्ञान आदि । अर्थात् निश्चयसे तो आत्मामें रमण करनेवाला ही ब्रह्मचारी है और व्यवहारमें जो सब स्त्रियोंके सेवनका त्यागी है वह ब्रह्मचारी है। सब स्त्रियोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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