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________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय) २८५ अथ रात्रिभक्तव्रतं चतुःश्लोक्या व्याकरिष्यन्नादौ तल्लक्षणमाह-- __ स्त्रीवैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः। यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्री रात्रिभक्तवतस्तु सः ॥१२॥ स्त्रीवैराग्यनिमित्तं नित्यं कामाङ्गनासंग' इत्यादिना प्रागुक्तम् । प्राग्वृत्तनिष्ठित:--पूर्वोक्तप्रतिमापञ्चकाचारनियूंढः । त्रिधा मनोवाक्कायकृतादिभिः । तदुक्तम्--- 'मणवयणकायकद-कारिदाणुमोदेहि मेहुणं णवधा। दिवसम्मि यो विवज्जदि गुणम्मि सो सावयो सुद्दो ॥' [ वसु. श्रा. २९६ ] ॥१॥ अथ षष्ठप्रतिमावतः स्तौति-- ___ अहो चित्रं धृतिमतां संकल्पच्छेदकौशलम् । यन्नामापि मुदे साऽपि दृष्टा येन तृणायते ॥१३॥ साऽपि दृष्टा। सापि कान्ता। सा कान्ता दृष्टापीति चावृत्त्या योज्यम् । गृहस्थस्य स्वदारान् प्रति प्रेम्णो दृग्व्यापारस्य च संभवात् ।।१३॥ १२ अथास्य रात्रावपि मैथुनविनिवृत्तिमुपपादयन्नाह-- अब चार इलोकोंके द्वारा रात्रिभक्त व्रतका वर्णन करते हुए पहले उसका लक्षण कहते हैं जो पूर्वोक्त पाँच प्रतिमाओंके आचारमें पूरी तरहसे परिपक्व होकर स्त्रियोंसे वैराग्यके निमित्तोंमें एकाग्रमन होता हुआ मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे दिनमें स्त्रीका सेवन नहीं करता, वह रात्रिभक्तवत होता है ।।१२।। विशेषार्थ-कामसेवनके दोष, स्त्रीके दोष, स्त्रीसंगके दोष, और अशौच तथा आर्य पुरुषोंकी संगति ये स्त्रीसे विरक्त होनेके निमित्त हैं। कामसेवन आदिके दोषोंका चिन्तवन करनेसे तथा ब्रह्मचारी कामजयी पुरुषोंकी संगतिसे स्त्रीसे विराग उत्पन्न होता है। जब उसका मन उन निमित्तोंमें एकाग्रमन हो जाये अर्थात् उसके मनमें स्त्रीसेवन न करनेके प्रति दृढ़ता आ जावे तब सबसे प्रथम दिनमें उसके सेवन न करनेका नियम लेनेवाला श्रावक छठी प्रतिमाका धारी होता है। यह कहा जा सकता है कि दिनमें स्त्रीका सेवन तो विरले ही मनुष्य करते हैं। इसमें क्या विशेषता हुई। किन्तु जो दिनमें केवल कायसे ही सेवन नहीं करते वे भी मनसे, वचनसे और उनकी कृत कारित अनुमोदनासे सेवन करते है उसीका त्याग छठी प्रतिमामें होता है। आचार्य वसुनन्दिने भी कहा है-मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदनासे जो दिनमें मैथुनका त्याग करता है वह छठा श्रावक है ॥१२।। इसीसे आगे छठी प्रतिमावालेकी प्रशंसा करते हैं जिस स्त्रीका नाम भी सुनना प्रीतिकारक होता है, वही स्त्री आँखोंके सामने होते हुए भी जिस मनोव्यापारको रोकनेकी शक्तिके द्वारा तृणकी तरह तुच्छ प्रतीत है, धीर-वीर उन पुरुषोंके मनोविकारको रोकनेकी सामर्थ्य अद्भुत आश्चर्य पैदा करनेवाली है ॥१३॥ षष्ठ प्रतिमाधारीके रात्रि आदिमें भी मैथुनसे निवृत्तिका कथन करते हैं१. छटो--व. श्रा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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