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________________ २८७ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) अथ ब्रह्मचारिणे श्लाध्यते-- अनन्तशक्तिरात्मेति श्रुतिर्वस्त्वेव न स्तुतिः। यत्स्वद्रव्ययुगात्मैव जगज्जेत्रं जयेत्स्मरम् ॥१७॥ वस्त्वेव-वस्तुविषयैव । स्तुतिः-गुणाल्पत्वे सति तद्बहुत्वकथनम् । स्वद्रव्ययुक्-परद्रव्यव्यावर्तनेनात्मद्रव्यं समादधानः ॥१७॥ अथ मन्दमत्यनुजिघृक्षया ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह विद्या मन्त्राश्च सिद्धयन्ति किङकरन्त्यमरा अपि। क्रूराः शाम्यन्ति नाम्नाऽपि निमंलब्रह्मचारिणाम् ॥१८॥ सिद्धयन्ति-वरप्रदा भवन्ति । उक्तं च 'मौनी नियमितचित्तो मेधावी बीजधारणसमर्थः । मायामदनमदोनः सिद्धयति मन्त्री न संदेहः ।।। क्रूरा:-ब्रह्मराक्षसादयः ॥१८॥ अथ प्रसङ्गवशाद् ब्रह्मचर्याश्रमं किचिद व्याचष्टे प्रथमाश्रमिणः प्रोक्ता ये पञ्चोपनयादयः। तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्युर्दारानन्यत्र नैष्ठिकात् ॥१९॥ उपनयादयः । आदिशब्देनावलम्बनदीक्षागूढनैष्ठिका गृह्यन्ते । तत्र उपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा गृहिधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहवासा भवन्ति । अदीक्षाब्रह्मचारिणो वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहिधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिणः । कुमारश्रमणाः सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिर्दुःसहपरीषहैरात्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा केवल मनुष्य जातिकी ही सब स्त्रियाँ नहीं ली जातीं। बल्कि देवांगना और पशुयोनिकी स्त्रियाँ और उनकी पत्थर, काष्ठ आदिमें तथा चित्रोंमें अंकित प्रतिकृतियाँ भी ली जाती हैं। उनका सेवन कायसे ही नहीं, बल्कि मन-वचनसे भी नहीं होना चाहिए ॥१६॥ ब्रह्मचारीकी प्रशंसा करते हैं आत्मा अनन्त शक्तिवाला है, इस प्रकारका आप्तका उपदेश वास्तविक ही है स्तुति नहीं है अर्थात् बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहा गया है; क्योंकि परद्रव्यसे हटकर स्वद्रव्य-आत्मद्रव्यमें लीन आत्मा ही जगत्को जीतनेवाले कामको जीतता है ॥१७॥ मन्द बुद्धि लोगोंको समझाने के लिए ब्रह्मचर्यका माहात्म्य कहते हैं-- निरतिचार ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालोंका नाम लेने मात्रसे ब्रह्मराक्षस आदि क्रूर प्राणी भी शान्त हो जाते हैं, देवता भी सेवकोंकी तरह व्यवहार करते हैं तथा विद्या और मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं ॥१८॥ प्रसंगवश ब्रह्मचर्याश्रमका थोड़ा-सा कथन करते हैं--- जो मौंजीबन्धनपूर्वक ब्रह्म वर्य व्रतका अनुष्ठान करनेवाले उपनय ब्रह्मचारी आदि पाँच प्रकारके ब्रह्मचारी आगम में कहे हैं वे उपासकाध्ययन आदि शास्त्रका अध्ययन करनेके बाद पत्नीको स्वीकार कर सकते हैं। उनमें से जो नैष्ठिक है वह ऐसा नहीं कर सकता ॥१९॥ विशेषार्थ--चारित्रसारमें पाँच प्रकारके ब्रह्मचारी कहे हैं--उपनय, अवलम्ब, दीक्षा, गूढ़ और नैष्ठिक । उपनय ब्रह्मचारी यज्ञोपवीत धारण करके आगमका अध्ययन करनेके बाद गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं । अवलम्ब ब्रह्मचारी क्षुल्लकके रूपमें आगमका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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