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________________ ३ १२ १५ १८ २८२ धर्मामृत ( सागार) अथ सामायिक प्रोषधोपवासयोः प्रतिमाभावे युक्तिमाहयत्प्राक्सामायिकं शीलं तद्द्व्रतं प्रतिमावतः । यथा तथा प्रोषघोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक् ॥६॥ शीलं वृतिकल्पं व्रतं सस्यदेश्यम् । युक्तिवाक् – समाधानवचनम् ||६|| अथ परमकाष्ठा प्रपन्नान् प्रोषधोपवासिनः प्रशंसन्ति निशां नयन्तः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे । ये क्षोभ्यन्ते न केनापि तान्नुमस्तुर्यभूमिगान् ॥७॥ स्पष्टम् ॥७॥ अथ सचित्तविरतस्थानं चतुः श्लोक्या व्याचष्टे — हरित कुरबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपचतुनिष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥८॥ लवणादि । आदिशब्देन कन्दमूल फल - पत्र - करीरादि । अत्र च द्वितीयपादे नवाक्षरत्वं न दोषाय अनुष्टुभ नवाक्षरस्यापि पादस्य शिष्टप्रयोगेषु क्वापि क्वापि दर्शनात् । तथा च नेमिनिर्वाणाख्ये महाकाव्ये - 'नूपुरध्वनिभिस्त्रीणां विजिहीषूणां प्रबोधितः । वनेषु व्याकुलं कं न चक्रे कन्दर्पंकेसरी ॥ [ ८२ ] क्वचिच्च 'ऋषभाद्या वर्धमानान्ता जिनेन्द्रा दशपञ्च च । त्रिवर्गसमायुक्तादिशन्तु तव सम्पदम् ॥' [ ] समीपवर्ती लोगोंको ऐसा लगता है तब दूसरोंको तो विशेष रूपसे ऐसा लगता है । इससे आहारत्याग, अंगसंस्कारत्याग, व्यापारत्याग और ब्रह्मचर्यधारण से प्रोषध व्रतको चार प्रकारका कहा है ॥५॥ सामायिक और प्रोषधोपवास के प्रतिमारूप होने में युक्ति देते हैं जैसे, व्रत प्रतिमापालनके समय में जो सामायिक व्रत शीलरूप होता है तीसरी प्रतिमाके धारी श्रावक वह व्रतरूप होता है । वैसे ही व्रत प्रतिमा में जो प्रोषधोपवास शीलरूप होता है, चतुर्थ प्रतिमाके पालक श्रावकके वह व्रतरूप होता है, यह सामायिक और प्रोषधोपवासके प्रतिमारूप होनेमें समाधान वचन है ||६|| विशेषार्थ — जो व्रतकी रक्षा के लिए हो उसे शील कहते हैं । व्रत प्रतिमा में सामायिक और प्रोषधोपवास अणुव्रतोंकी रक्षा के लिए होते हैं । किन्तु सामायिक प्रतिमा और प्रोषधोपवास प्रतिमा में व्रतरूपसे अवश्य करणीय होते हैं || ६ || परम काष्ठा को प्राप्त प्रोषधोपवासियोंकी प्रशंसा करते हैं जो अशुभ कर्मकी निर्जराके लिए मुनिको तरह कायोत्सर्ग से स्थित होकर पर्वकी रात बिताते हैं और किसी भी परीषह अथवा उपसर्ग द्वारा समाधिसे च्युत नहीं किये जाते, उन चतुर्थ प्रतिमाधारी श्रावकोंका हम स्तवन करते हैं ॥७॥ सचित्तविरत प्रतिमाको चार श्लोकोंके द्वारा कहते हैं पूर्वोक्त चार प्रतिमाका निर्वाह करने वाला जो दयामूर्ति श्रावक अप्रासु अर्थात् अग्नि न पकाये हुए हरित अंकुर, हरित बीज, जल, नमक आदिको नहीं खाता, उसे शास्त्रकारोंने सचित्तविरत श्रावक माना है ||८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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