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षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय )
२८३ चतुनिष्ठः-चतसृषु पूर्वोक्तप्रतिमासु निष्ठा निर्वाहो यस्य । उक्तं च
'जं वज्जिज्जदि हरिदं तयपत्त-पवाल-कंद-फल-वीयं ।
अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिवित्ति तं ठाणं ॥ [ वसु. श्रा. २९५ ] ॥८॥ अथ जाग्रतकृप इति समर्थयते--
पादेनापि स्पृशन्नर्थवशाधोऽतिऋतीयते ।
हरितान्याश्रितानन्तनिगोतानि स भोक्ष्यते ॥९॥ अतिऋतीयते--अत्यर्थ घृणां करोति । हरितानि- हरितावस्थवनस्पतीन् । आश्रितेत्यादि । उक्तं चार्षे ब्राह्मणसृष्टिप्रस्तावे
'सन्त्येवानन्तशो जीवा हरितेष्वङकुरादिषु ।
निगोता इति सार्वज्ञं देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥' [ महापु. ३८.१८ ] भोक्ष्यते काक्वा न भक्षयिष्यतीत्यर्थः ।।९।।
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विशेषार्थ-पं. आशाधरजीने जो म्लान नहीं हुई है आई अवस्था में है उसे हरित कहा है। आचाय समन्तभद्रने उसे 'आम' शब्दसे कहा है। आमका अर्थ होता है कर चा, जो पका नहीं है। और अप्रासुकका अर्थ पं. आशाधरजीने 'अनग्निपक्व'--जो आगसे नहीं पकाया गया-किया है। यद्यपि अप्रासुकको प्रासुक करने के कई प्रकार आगेममें कहे हैं--सुखाना, पकना, आगपर गर्म करना, चाकूसे छिन्न-भिन्न करना, उसमें नमक आदि मिलाना। लॉटी संहितामें कहा है कि सचित्तविरत प्रतिमामें सचित्तके भक्षणका नियम है, सचित्तको स्पर्शन करनेका नियम नहीं है। इसलिए अपने हाथसे उसे प्रासुक करके भोजनमें ले सकता है॥८॥
सचित्तविरतको दयामूर्ति क्यों कहा, इसका समर्थन करते हैं--
पांचवीं प्रतिमाके साधनमें तत्पर जो श्रावक प्रयोजनवश हरित वनस्पतिको पैरसे छूनेमें भी अत्यन्त घृणा करता है जिसमें अनन्त निगोदनामक साधारण शरीर वनस्पतिकायिक जीवोंका वास है उस हरित वनस्पतिको क्या वह खायेगा? अर्थात् नहीं खायेगा ।।९।। ___विशेषार्थ-आगममें हरित वनस्पतिमें अनन्त निगोदिया जीवोंका वास कहा है । प्रत्येक वनस्पतिके दो भेद हैं-सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिस प्रत्येक वनस्पतिके आश्रयसे साधारण वनस्पतिकायिक जीव रहते हैं जिन्हें निगोद कहते हैं उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । ऐसी वनस्पतिको पंचम श्रावक पैरसे छूनेमें भी ग्लानि करता है। यद्यपि पाक्षिक श्रावक भी ऐसा करता है किन्तु पंचम श्रावक तो उससे भी बढ़कर ग्लानि करता है। महापुराणमें ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्ति बतलाते हुए कहा है कि भरत चक्रवर्तीने परीक्षाके लिए मागमें हरित घास बिछवा दी थी। तो जो दयालु विचारवान् आगन्तुक थे वे उसपरसे नहीं आये। भरतने उनसे इसका कारण पूछा। तो वे बोले-'हे देव ! हमने
१. 'सुबकं पक्कं तत्तं अंविललवणेण मिस्सियं दव्वं ।
जं जंतेण य छिण्णं तं सव्वं फासुवं भणियं ।।' [ २. 'भक्षणेऽत्र सचित्तस्य नियमो न तु स्पर्शने । तत्स्वहस्तादिना कृत्वा प्रासुकं चात्र भोजयेत् ॥'
-ला. सं.
१७॥
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