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षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय )
अथ चतुःश्लोक्या प्रोषधोपवासस्थानं व्याचष्टे -
स प्रोषधोपवासी स्याद्यः सिद्धः प्रतिमात्रये । साम्यान्न च्यवते यावत्प्रोषधानशनव्रतम् ॥४॥ सिद्ध: - निष्पन्नः प्रतीतो वा । साम्यात् — भावसामायिकात् । नामादिसामायिक पञ्चकस्याप्यनुचरणात् । उक्तं च
अथ प्रोषधोपवासिनो निष्ठाकाष्ठां निर्दिशति —
'पवंदिनेषु चतुष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य | प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपरः प्रोषधानशनः ॥' [ र श्रा. १४९ ] ॥४॥
त्यक्ताहाराङ्गसंस्कारव्यापारः प्रोषधं श्रितः । चेोपसृष्टमुनिवद्भाति नेदीयसामपि ॥५॥
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प्रोषधोपवासशीले तु तदुपरमे
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आगे चार श्लोकोंसे प्रोषधोपवास प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं
जो श्रावक दर्शन, व्रत और सामायिक प्रतिमामें सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण होता हुआ प्रोपधोपवासकी प्रतिज्ञाके विषयभूत सोलह पहर पर्यन्त साम्यभावसे अर्थात् भावसामाकिसे च्युत नहीं होता वह प्रोषधोपवास प्रतिमावाला है || ४ ||
त्यक्ताः - सर्वात्मना प्रत्याख्याताः । देशतस्तत्प्रत्याख्यानस्य पूर्वं समर्थितत्वात् । अङ्गसंस्कार:स्नानोद्वर्तन-वर्णक-विलेपन- पुष्प-गन्धविशिष्टवस्त्राभरणादिः । साहचर्यात्सावद्यारम्भः । चेलोपसृष्टमुनिवत् - १२ उपसर्गवशाद् वस्त्रेण वेष्टितो निर्ग्रन्थः, [ यथा ] ब्रह्मचर्यधारणशरीरादिममत्ववर्जनयोगात् । एतेन परमतमाहारादिप्रोषधभेदात्तद्व्रतचातुविध्यमपि संगृह्यते । तद्यथा - चतुष्प चतुर्थादिकुव्यापार निषेधनं, ब्रह्मचर्य - क्रिया, स्नानादित्यागः प्रोषधव्रतम् । नेदीयसां - निकटतराणां पार्श्ववर्तिलोकानां बान्धवादीनां वा ॥५॥
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विशेषार्थ - सामायिक प्रतिमा में सामायिक करते हुए जो स्थिति भावसाम्यकी रहती है वैसी ही स्थिति प्रोषधोपवास में सोलह पहर तक रहे तो वह प्रोषधोपवास प्रतिमा कहलाती है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह सोलह पहर तक ध्यानमें बैठा रहता है । मतलब है साम्यभावके बने रहनेसे । सामायिकके छह भेद कहे हैं – नामसामायिक, स्थापनासामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक, द्रव्यसामायिक और भावसामायिक । प्रोषधोपवास व्रत में तो भावसामायिककी स्थितिके अभाव में नामादि पाँच सामायिक होनेसे भी काम चलता है किन्तु प्रोषध प्रतिमामें तो सोलह पहर तक भावसामायिककी स्थिति होनी चाहिए ||४||
आगे प्रोषधोपवासीकी निष्ठाकी सीमा बतलाते हैं
चारों प्रकारका आहार, स्नान आदि अंगसंस्कार तथा व्यापारको छोड़कर प्रोषधोपवास करनेवाला चतुर्थ प्रतिमाधारी पास में रहनेवाले बन्धु बान्धवोंको भी उपसर्गवश वस्त्रसे वेष्ठित मुनिकी तरह मालूम होता है ॥५॥
विशेषार्थ - प्रोषधोपवास प्रतिमाका धारी प्रोषधोपवासके कालमें चारों प्रकारका आहार, स्नान, तेल, उबटन, गन्ध, पुष्प, विशिष्ट वस्त्राभरण और सावद्य आरम्भ सर्वात्मना छोड़ देता है । ब्रह्मचर्य धारण करता है, शरीर आदिसे ममत्व नहीं करता । अतः वह समीप - वर्ती लोगों को भी ऐसे मुनिकी तरह लगता है जिसपर किसीने वस्त्र डाल दिया है । जब
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