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________________ २८० धर्मामृत ( सागार) कृतिकर्म । यत्स्वामी-- 'चतुरावर्तस्त्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः। सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥' [ र. श्रा. १३९ ] सन्ध्यात्रयेऽपि, शक्त्याऽन्यदापि । साम्यानुज्ञानार्थमपिशब्दः । समाधे:--रत्नत्रयैकाग्रतालक्षणाद्योगात् । तदेतन्निश्चयसामायिकम् ॥२॥ निश्चयसामायिकशिखराधिरूढाय श्लाघते - आरोपितः सामायिकवतप्रासादमूर्धनि । कलशस्तेन येनैषा भूरारोहि महात्मना ॥३॥ स्पष्टम् ॥३॥ होता वह सामायिक प्रतिमाधारी किसकी प्रशंसाके योग्य नहीं है ? अपितु सभीकी प्रशंसाके योग्य है ॥२॥ विशेषार्थ-पीछे अनगारधर्मामृतके षडावश्यक अध्यायमें जो वन्दनाकर्म कहा है उसे कृतिकर्म कहते हैं। तीनों सन्ध्याओंमें कृतिकर्म करनेको व्यवहारसामायिक कहते हैं । व्यवहारसामायिकपूर्वक जो ध्यान किया जाता है जिसका लक्षण है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी एकाग्रता । वह ध्यान ऐसा निश्चल हो कि अन्य उपसर्गकी तो बात ही क्या, यदि वन भी टूट पड़े तो विचलित न हो। ऐसी स्थिरता निश्चयसामायिक है। 'अपि' शब्दसे यह बतलाया है कि शक्तिके अनुसार अन्य कालमें भी सामायिक की जा सकती है ॥२॥ जो निश्चयसामायिकके शिखरपर आरूढ़ हैं उनको प्रशंसा करते हैं जिस महात्माने व्यवहारसामायिकपूर्वक निश्चयसामायिक प्रतिमापर आरोहण किया उसने सामायिकत्रतरूपी देवालयके शिखरके ऊपर कलश चढ़ा दिया ॥३॥ विशेषार्थ-समय अर्थात् नियमित कालमें होनेवाले सामायिक अर्थात् साम्यभावना रूप व्रतको सामायिक व्रत कहते हैं। वह व्रत एक बड़े विशाल देवालयके तुल्य है क्योंकि एक तो उस पर चढ़ना कठिन होता है, दूसरे वह इष्ट सिद्धिका कारण होता है। जैसे देवालयके शिखर पर कलशारोहणसे देवालयका कार्य पूर्ण हो जाने के साथ उसकी शोभा बढ़ जाती है वैसे ही वज्रपात होने पर भी चलायमान न होने सामायिक प्रतिमाकी पूर्ति होनेके साथ उसकी गरिमा बढ़ जाती है। सामायिक प्रतिमावाला भी पूर्वमें कहे बारह व्रतोंका पालन करता है। उन में भी सामायिक नामका व्रत है। तब प्रश्न होता है कि सामायिक व्रत और सामायिक प्रतिमामें क्या अन्तर है ? लाटी संहितामें कहा है कि व्रत प्रतिमामें जो सामायिक व्रत है वह सातिचार होता है तथा उसमें त्रिकाल सामायिक करनेका नियम नहीं है। सामायिक प्रतिमामें सामायिक निरतिचार होती है तथा त्रिकाल सामायिक करना उसी तरह आवश्यक है जैसे मुनिको मूलगुणोंका पालन आवश्यक है। यदि व्रत प्रतिमावाला कारण वश कभी सामायिक न भी कर पाये तो उससे उसके व्रतकी क्षति नहीं होती। किन्तु सामायिक प्रतिमावाला त्रिकाल सामायिक न करे तो उसके व्रतकी हानि होती है, अतिचारकी तो कथा ही क्या है ? ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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