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षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय)
अथ सामायिकादिप्रतिमानवकस्वरूपनिरूपणार्थमुपक्रमते । तत्र यद् व्रतिकप्रतिमायां सामायिकशीलतया निर्दिष्टं तदेवेह व्रतत्वेन प्रतिपद्यमानं प्रतिमारूपतां यातीति निरूपयन्नाह
सुदृङ्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः ।
भजस्त्रिसंध्यं कृच्छेऽपि साम्यं सामायिकी भवेत् ॥१॥ सुदक-सुशब्दोऽत्र प्राशस्त्यार्थी दगादीनां त्रयाणामपि निरतिचारत्वद्योतनार्थविशेषणत्वेनोपात्तः ॥१॥ ६ अथ व्यवहारसामायिकविध्युपदेशपुरस्सरं निश्चयसामयिक विधेयतयोपदिशति--
कृत्वा यथोक्तं कृतिकर्म संध्यात्रयेऽपि यावन्नियम समाधेः। यो वज्रपातेऽपि न जात्वपैति सामायिकी कस्य स न प्रशस्यः ॥२॥
अब सामायिक आदि नौ प्रतिमाओंका स्वरूप कथन करनेका उपक्रम करते हैं। उनमें-से व्रतिक प्रतिमामें जो सामायिक शीलरूपसे कहा गया था, वही यहाँ व्रतरूपसे धारण करनेपर प्रतिमारूप होता है, यह कथन करते हैं
निरतिचार सम्यग्दर्शन तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंके समूहके अभ्याससे जिसकी बुद्धि अर्थात् ज्ञान विशुद्ध हो गया है, तथा जो परिग्रह और उपसर्गके आनेपर भी तीनों सन्ध्याओं में साम्यभाव धारण करता है वह श्रावक सामायिक प्रतिमावाला होता है ।। १ ।।
विशेषार्थ-पहले कहा है कि आगेकी प्रतिमा धारण करनेका वही अधिकारी होता है जो उससे पूर्व की प्रतिमाओंमें सुदृढ़ होता है। अतः तीसरी प्रतिमा धारण करनेवाला प्रथम प्रतिमा दर्शनिक और दूसरी प्रतिमा व्रतिकके सम्यग्दर्शन मूलगुण तथा उत्तरगुणोंका पूर्ण अभ्यासी होना चाहिए। उस अभ्यासके प्रसादसे उसके रागादि और क्षीण हो जानेसे विकसित हुए शुद्ध आत्माके ज्ञानसे होनेवाले सुखका स्वाद भी बढ़ना चाहिए। यही ज्ञानकी विशुद्धता है । द्रव्यश्रुतके ज्ञानके साथ भावभुत ज्ञान भी होना चाहिए। तभी तो वह तीनों सन्ध्याओंमें कष्ट आनेपर भी साम्यभावसे नहीं डिगता है। मोह और क्षोभसे रहित आत्मपरिणामको सौम्य कहते हैं। दर्शनमोहजन्य परिणाम मोह है और चारित्रमोहजन्य परिणाम क्षोभ है । इनसे रहित परिणाम साम्य है। साम्यभावका धारी सामायिक प्रतिमावाला है। सामायिक तीनों सन्ध्याओंमें की जाती है। उस समय कष्ट आनेपर साम्यभावसे विचलित नहीं होना चाहिए । तभी वह सामायिक प्रतिमा कहलाती है ।।१।।
___ व्यवहारसामायिककी विधिके कथनपूर्वक निश्चयसामायिकको करनेका उपदेश करते हैं
तीनों भी सन्ध्याओंमें आवश्यकोंके कथनवाले अध्यायमें विस्तारसे कहे गये वन्दनाकर्मको करके प्रतिज्ञात कालपर्यन्त वज्रपात होनेपर भी जो कभी भी समाधिसे च्युत नहीं
१. 'मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो' ॥-प्रवचनसार गा.
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