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धर्मामृत ( सागार) बन्धाद्देहोऽत्र करणान्येतैश्च विषयग्रहः। बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् ॥३१॥ ज्ञानिसङ्गतपोध्यानैरप्यसाध्यो रिपुः स्मरः ।
देहात्मभेदज्ञानोत्थवैराग्येणैव साध्यते ॥३२॥ एनं विषयग्रहं ॥३१-३२॥
अथात्मदेहान्तरज्ञानार्थितया संन्यस्तसमस्तसंगानां प्राचां [इलाधापूर्वकमात्मानं कलत्रमात्रत्यागेऽप्यसमथं गह्यमाणः प्राह-]
धन्यास्ते येऽत्यजन् राज्ये भेदज्ञानाय तादृशम् ।
धिमादृशकलत्रेच्छातंत्रगार्हस्थ्यदुःस्थितान् ॥३३॥ ते-भरतसागरादयः । कलत्रेच्छातन्त्र भार्याच्छन्दाधीनं तद्विषयाभिलाषायत्तं वा ॥३३॥
पुण्य-पाप रूप कर्मके उदयसे शरीर होता है। शरीरमें स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ होती हैं । इन इन्द्रियोंसे स्पर्श आदि विषयोंका ग्रहण होता है। विषयोंके ग्रहणसे पुनः शुभाशुभ कर्म पुद्गलोंका बन्ध होता है । इसलिए बन्धका मूल जो यह इन्द्रियों द्वारा विषयोपभोग है इसका मैं निमूलन करनेकी प्रतिज्ञा करता हूँ ॥३१॥
सब विषयोंमें स्त्री भोगकी इच्छा अत्यन्त दुर्निवार है। इसलिए उसके निग्रह के उपायका विचार करते है -
आत्मदर्शी ज्ञानी पुरुषोंकी संगति तप और ध्यानसे भी वशमें न आनेवाला यह शत्रु कामदेव शरीर और आत्माके भेदज्ञानसे उत्पन्न हुए वैराग्यसे ही वशमें आता है ।।३२।।
विशेषार्थ-कामकी वासना बड़ी प्रबल होती है। भर्तृहरिने लिखा है कि मदोन्मत्त हाथीका गण्डस्थल चीर देनेवाले वीर इस पृथ्वी पर हैं । कुछ प्रचण्ड सिंहका वध करनेमें भी चतुर हैं। किन्तु मैं बलवानोंके सामने जोर देकर कहता हूँ कि कामके मदका दलन करनेवाले मनुष्य बहुत विरल हैं। कुछका कहना है कि आत्मज्ञानियोंकी संगतिसे या तप और ध्यानसे कामको वशमें किया जा सकता है। किन्तु यह भी नम है। हरि हर ब्रह्मा आदि सभी तो इसके सामने हार चुके हैं। इसको वशमें करनेका एक ही उपाय है कि शरीर और आत्माके भेदको जान लेने पर जो वैराग्य उत्पन्न होता है उसीसे इसे जीता जा सकता है ॥३२॥ ___आगे, शरीर और आत्माके भेदज्ञानके लिए समस्त परिग्रहका त्याग कर देनेवाले पूर्व पुरुषोंकी प्रशंसा करते हुए, स्त्री मात्रका भी त्याग करने में असमर्थ अपनी निन्दा करता है
भरत सगर चक्रवर्ती आदि जिन पुरुषोंने भेद ज्ञानके लिए ऐसे विशाल राज्यको त्याग दिया, वे धन्य हैं । जिसमें स्त्रीकी इच्छाका ही प्राधान्य है उस गृहस्थाश्रममें दुःख पूर्ण जीवन बितानेवाले हमारे जैसे विषयी लोगोंको धिक्कार है ॥३३॥
१. 'मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति वीराः केचित् प्रचण्डमगराजवधेऽपि दक्षाः ।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥'-भ. शृङ्गारशतक ७३१ श्लो. ।
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