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________________ पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय ) अथाभिलष्यमाणोपशमश्रीस्त्रियोराकर्षण विषये बलाबलं चिन्तयतिइतः शमश्रीः स्त्री चेतः कर्षतो मां जयेन्नु का । आ ज्ञातमुत्तरैवात्र जेत्री या मोहराचमूः ॥३४॥ आः संतापतापप्रकोपयोः । आ इति स्मरणे वा ॥ ३४ ॥ अथ कलत्र दुस्त्यजत्वं भावयति चित्रं पाणिगृहीतीयं कथं मां विश्वगाविशत् । यत्पृथग्भावितात्माऽपि समवैम्यनया पुनः ॥३५॥ चित्र - यस्याः खलु पाणिर्गृह्यते सा कथं सर्वात्मना ग्राहकात्मानं [ प्रविशतीति ] विस्मयो मे । पाणिगृहीती - परिणीतस्त्री । समवैमि - तादात्म्यं प्रतिपद्येऽहम् ||३५|| अथ स्त्रीनिवृत्तिमात्मनो निरूपय्य [ -निरूप्य ] वित्तमुपपत्त्या प्रतिक्षिपन्नाहस्त्रीतश्चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमीहसे । मृतमण्डनकल्पो हि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः ॥ ३६॥ २७३ श्रावक स्वयं जिस प्रशमसुखरूप लक्ष्मीकी इच्छा करता है उसमें और स्त्रीके प्रति अपने आकर्षण के विषय में बलाबलका विचार करता है इस ओर से प्रशमसुखरूप लक्ष्मी और दूसरी ओर से खी मेरे चित्तको आकृष्ट करती हैं । इनमें से किसकी जीत होगी ? अथवा मुझे निश्चय हो गया कि इन दोनों में से स्त्री ही जीतेगी, जो मोह राजाकी सेना है ||३४|| विशेषार्थ - श्रावक स्त्री और शमश्रीको दृष्टिमें रखकर अपनेको तोलता है । फिर दोनोंके बलाबलको तोलकर निश्चय करता है कि स्त्री शमश्रीसे बलवती है क्योंकि वह मोह राजाकी सेना है । यहाँ मोहसे चारित्र मोहनीय लेना चाहिए। जैसे राजा अपनी सेनाके द्वारा शत्रुको जीतता है वैसे ही मोह स्त्रीके द्वारा जय प्राप्त करता है ||३४|| आगे विचार करता है कि स्त्रीको छोड़ना कठिन है आश्चर्य है कि यह पाणिगृहीती अर्थात् जिसका मैंने पाणिग्रहण किया है कैसे मुझमें चारों ओर से घुस गयी। क्योंकि मैं भिन्न हूँ और यह मुझसे भिन्न है इस प्रकार तत्त्वज्ञानसे बारम्बार विचार करनेपर भी मैं फिर उसके साथ अपनेको एकमेक कर लेता हूँ||३५|| Jain Education International विशेषार्थ - विवाहको पाणिग्रहण कहते हैं और इसीसे पत्नीको पाणिगृहीती कहते हैं । पाणिगृहीतीका अर्थ है, जिसका हाथ ग्रहण किया गया है। जिसका हाथ ग्रहण किया गया हो, पकड़ा गया हो, वह हाथ पकड़नेवालेको कैसे सर्वात्मना - सब ओरसे वेष्टित कर सकता है । किन्तु यहाँ आश्चर्य यही है कि पाणिगृहीती स्त्रीने उसका पाणिग्रहण करनेवालेको ऐसे जकड़ लिया है कि वह तत्त्वज्ञानके द्वारा बार-बार यह चिन्तवन करता है कि मैं भिन्न हूँ और यह मुझसे भिन्न है, मेरा इसके साथ अभेद कैसा ? किन्तु यह सब तत्त्वज्ञान रखा रह जाता है और मैं मोहवश अभेद भावनारूपसे परिणत हो जाता हूँ ||३५|| इस तरह अपनेको स्त्रीसे निवृत्त बतलाकर युक्तिसे धनसंग्रहका तिरस्कार करता हैचित्त ! यदि तुम विवेकके बलसे स्त्रीसे निवृत्त हो तो फिर धनकी इच्छा क्यों करते हो । क्योंकि स्त्रीके प्रति निस्पृह होनेपर धनका अर्जन रक्षण आदि वैसा ही है जैसे मुर्देको सजाना ||३६|| सा. - ३५ For Private & Personal Use Only ३ ६ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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