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पञ्चदश अध्याय (षष्ठ अध्याय ) मोहात्-अविद्यासंस्कारात् । यदाह
'स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम् । वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः ॥ अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते दढः ।
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥' [ समाधितं. ११-१२ ] बद्धः-ज्ञानावरणादिकर्मपरतन्त्रीकृतः ।।२९।। तदिदानी कि करोमीत्याह
तदेनं मोहमेवाहमुच्छेत्तुं नित्यमुत्सहे।
मुच्येतैतत्क्षये क्षीणरागद्वेषः स्वयं हि ना ॥३०॥ आत्मा न प्रधानं पुमान् वा न स्त्री मनुष्यो वा न देवादिः । प्रकृतियोषितोः सांख्यसितपटकल्पितस्य निर्वाणस्य युक्तिबाधितत्वात् । देवनारकाणां च संयममात्रस्याप्यसंभवात्तिरश्चां च सर्वविरतेरभावात् ॥३०॥
इदानी बन्धमूलामनर्थपरम्परां परामृशन् पुनर्बन्धानुबन्धिनं विषयसेवाभिनिवेशं संहतुं प्रतिज्ञां करोति- १२ वहन करना, अंगोंका छेदन आदिका दुःख है। मनुष्योंको दरिद्रता, व्याधि, दासता, वधबन्ध आदिका दुःख है। देवोंको ईर्षा, विवाद, विपक्षी देवोंकी सम्पत्तिका दर्शन, प्रिय देवांगनाका मरण, अपने मरणकी चिन्ता आदिका दुःख है। कहा है-'नरकमें शूल, कुठार, यन्त्र, अग्नि, तीक्ष्ण क्षुरेसे आघातका दुःख है । तिर्यंचोंमें श्रमके दुःखरूपी आगकी ज्वालासे प्राणी पीड़ित है। मनुष्योंमें घोर प्रयास करना पड़ता है। देवोंमें राग सताता है । इस प्रकार दुर्गतिमय दुखपूर्ण संसारमें प्राणी भ्रमण करते हैं।' इसका कारण मोह है। कहा हैआत्माको न जाननेवाले मनुष्योंको शरीरमें ही आत्मबुद्धि होनेसे यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है इत्यादि भ्रम रहता है । यही अविद्या है, अज्ञान है, मोह है, उससे संस्कार दृढ़ होता है। उस संस्कारवश पुनः मनुष्य शरीरको ही आत्मा मानकर उसीमें रमा रहता है । और इस तरह संसारमें भ्रमण किया करता है ॥२९॥
इसलिए मैं इस मोहका ही क्षय करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हूँ। क्योंकि इस मोहका क्षय हो जानेपर राग द्वेषका क्षय हो जाता है और राग द्वेषके क्षय हो जाने पर आत्मा स्वयं ही विना प्रयत्नके मुक्त हो जाता है ॥३०॥
विशेषार्थ-संसारकी जड़ मोह है। इस मोहको ही जड़ मूलसे उखाड़नेका प्रयत्न करना चाहिए । राग द्वेषका मूल तो मोह ही है। मोहके जाने पर राग द्वेष अधिक दिन तक नहीं ठहरते । इसी लिए सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है। मोहका क्षय उसीके द्वारा होता है । स्वामी समन्तभद्र ने कहा है .-यदि गृहस्थ निर्मोह है तो मोक्षमार्गी है और घर छोड़ देनेवाला मुनि यदि मोही है तो वह मोक्षमार्गी नहीं है। मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ॥३०॥
अब इस अनर्थ परम्पराका मूल कर्मबन्धको जानते हुए कर्म बन्धको करनेवाली विषयासक्तिके संहारकी प्रतिज्ञा करता है
१. 'गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥'
-रत्न. श्रा.३३।
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