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धर्मामृत ( सागार ) अथ परिणतायां रात्री निद्राच्छेदे सति निर्वेदादिभावनां कुर्यादित्युपदेशार्थ सप्तदशश्लोकानाह
निद्राच्छेदे पुनश्चित्तं निदेनैव भावयेत् ।
सम्यग्भावितनिर्वेदः सद्यो निर्वाति चेतनः ॥२८॥ निर्वेदेन-संसारशरीरवैराग्येण ॥२८॥ अथ संसारनिर्वेदार्थमाह
दुःखावर्ते भवाम्भोधावात्मबुद्धयाऽध्यवस्यता।
मोहाद्देहं हहात्माऽयं बद्धोऽनादि मुहुर्मया ॥२९॥ दुःखावर्ते-दुःखानि नारकादिभववेदना। आवर्ता जलभ्रमणानीवानियतोत्थानत्वादुर्निवारत्वाच्च यत्र । संसारे हि नारकाणां दुःखानि स्वाभाविकपरस्परोदीरित-संक्लिष्टासुरकृतक्षेत्रानुभावजान्यत्यन्तदुःसहसततान्तस्ताप-परमदुर्गन्ध-खरस्पर्श-कटुरस-कृष्णवर्णदेहादिद्वारक-पूर्ववैरोद्घट्टनतदनुरूपातिप्रचण्डदण्डप्रयोगयातनामुख-पूर्वभववैरादिनिखंदना( ? )नुस्मारणप्रमुखभशोष्णशीतभूमिस्पर्शमधुच्छत्रायमाणजन्मसाताधोमुखज्वलद्वज्रावनिपातादिकानि । तिरश्चां च वधबन्धताडनपारवश्यक्षत्पिपासातिभारारोपणाङ्गच्छेदादिसंभवानि । मनुष्याणां च दारिद्रयव्याधिपारवश्यावरोधबन्धादि निबन्धनां [ -दीनि देवानां ] चेाविवादविपक्षसम्पदर्शनप्रियाङ्गनामरण-स्वमरणशोचनादिप्रभवानि बहशोऽनुश्रयन्ते । तथा चोक्तम
'श्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुरव्याहतैस्तैरने श्रमदुःखपावकशिखासंभारभस्मीकृतैः । मानुष्यैरतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतैः,
संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये बंभ्रम्यते प्राणिभिः ।।' [ ज्ञात होता है कि थोड़ा भी शयन प्रशस्त हो इस तरह सोना चाहिए। इससे यह विधि होती है कि रोगमें मार्ग चलने के थकान आदिमें बहुत भी सो सकते हैं ॥२७॥
रात्रिमें यदि नींद खुल जाये तो वैराग्य भावना भाना चाहिए यह सतरह श्लोकोंसे कहते हैं
नींद टूटने पर मनको संसार और शरीर विषयक वैराग्यसे ही सुसंस्कृत करे, धनादि की चिन्ता न करे, इसके लिए 'वैराग्यसे ही' कहा है; क्योंकि ठीक रीतिसे वैराग्यका अभ्यास करनेवाला आत्मा शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त करता है ॥२८॥
संसारसे वैराग्यके लिए क्या विचारना चाहिए, यह बताते हैं
यह संसार एक समुद्र है। इसमें नारक आदि भवोंका दुःख भँवर है। अर्थात् जैसे समुद्र में भँवर रहते हैं वैसे ही संसारमें दुःख है। इस संसार समुद्र में गोते खाते हुए मैंने मोहवश शरीरको ही आत्मा माना। और इस अपनी भूलसे यह स्वसंवेदनके द्वारा प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाला आत्मा अनादि कालसे बार-बार ज्ञानावरण आदि कर्मसे बद्ध किया। यह बड़े खेदकी बात है ॥२९।।
विशेषार्थ-संसारमें नारकियोंको स्वाभाविक दुःख तो है ही, परस्पर में तथा संक्लिष्ट असुरकृत दुःख भी है वहाँका क्षेत्र भी दुखदायक है । अत्यन्त दुःसह आन्तरिक संताप, परम दुर्गन्ध, कठोर स्पर्श, कटुक रस, काले वर्णका शरीर, पूर्वजन्मके वैरके प्रकट होने पर तदनुसार प्रचण्ड दण्डका प्रयोग, पूर्व जन्मकी स्मृति, अत्यन्त शीत या उष्ण स्पर्श जन्य कष्ट, जन्म होते ही मधुमक्खियोंके छत्तेके समान जन्म स्थानसे नीचेको मुख किये हुए जलती हुई आगमें गिरना ये सब कष्ट हैं। तिर्यञ्चोंको वध, बंध, ताड़न, भूख प्यासकी वेदना, अतिभार
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