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________________ पञ्चदश अध्याय (षष्ठ अध्याय) विश्रम्य गुरुसब्रह्मचारिश्रेयोथिभिः सह । जिनागमरहस्यानि विनयेन विचारयेत् ॥२६॥ ततश्च विश्रम्य-भोजनश्रममपनीय । यदाह सुश्रुतः 'भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः । ततः पादशतं गत्वा वामपाइँन संविशेत् ॥' [ सब्रह्मचारिणः-सहाध्यायिनः । रहस्यानि-ऐदंपर्याणि विचारयेत, इदमित्थं भवति न वेति ६ संप्रधारयेत् । गुरुमुखाच्छुतान्यपि शास्त्ररहस्यानि परिशीलनविकलानि न चेतसि सुदृढप्रतिष्ठानि भवन्तीति कृत्वा ॥२६॥ सायमावश्यकं कृत्वा कृतदेवगुरुस्मृतिः। न्याय्ये कालेऽल्पशः स्वप्याच्छक्त्या चाब्रह्म वर्जयेत् ॥२७॥ ततश्च सायं-सन्ध्यासमये आवश्यक देवार्चनं भूमिकौचित्येन च सामायिकादिषट्कम् । स्मृतिःमनस्यारोपणम् । न्याय्ये-न्यायादनपेते। न्याय्यश्च कालो रात्रेः प्रथमायामोऽर्धरात्रं वा । शरीरसात्म्येन १२ अल्पशः अल्पं एतच्च विशेषणमिति विधिः । सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमपसंक्रामत इति न्यायात । स्वप्यादिति च विशेष्यम् । न च तत्र विधिदर्शनावरणीयकर्मोदयेन स्वापस्य स्वतः सिद्धत्वात् । अल्पमपि च प्रशस्तं यदा भवति तदा स्वप्यादिति शसा द्योत्यते। तेन रोगमार्गश्रमादौ बहवोऽपि स्वप्यादिति विधिः । १५ अब्रह्म-मैथुनं । उपलक्षणं चैतत्, तेन 'यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानाप्रवृत्तितो व्रतयेदिति वचनाद् भोगादिनियम विना क्षणमपि स्थातुं न युक्तमिति स्मारयति ॥२७॥ भोजनके बाद क्या करना चाहिए, यह बताते हैं भोजनके बाद विश्राम करके गुरुओंके साथ, सहाध्यायियोंके साथ और अपना कल्याण चाहनेवालोंके साथ विनयपूर्वक जिनागमके रहस्योंका विचार करे ॥२६॥ विशेषार्थ-भोजनके बाद विश्राम करना स्वास्थ्यके लिए आवश्यक है । सुश्रुतने कहा है-'भोजन के पश्चात् तबतक राजाकी तरह बैठे जबतक भोजन सम्बन्धी थकान दूर हो । उसके पश्चात् सौ कदम चलकर बायीं करवटसे लेट जाये। इस प्रकार विश्राम करनेके पश्चात् शास्त्रचिन्तन करना चाहिए । गुरुके मुखसे सुने हुए भी शास्त्र के रहस्योंका यदि परिशीलन न किया जाये तो वे चित्तमें दृढ़तापूर्वक ठहरते नहीं हैं। इसलिए जिनागमके रहस्योंका विचार गुरु, साथ में स्वाध्याय करनेवाले तथा जो अन्य आत्महितके इच्छुक हों उनके साथ करना चाहिए ॥२६॥ उसके बाद सन्ध्या समयमें देवपूजा तथा भूमिकाके अनुसार सामायिक आदि षट्कर्म करके देव और गुरुका स्मरण पूर्वक उचित कालमें थोड़ा सोवे। और शक्तिके अनुसार मैथुन छोड़े ॥२७॥ विशेषार्थ-सोनेका उचित काल रात्रिका प्रथम पहर या आधी रात है। यहाँ 'सोवे' यह विशेष्य है और 'अल्पशः' विशेषण है। विशेषण सहित वाक्यमें विधि निषेध विशेषण पर निर्भर होता है ऐसा न्याय है। यद्यपि इसकी विधि आवश्यक नहीं है क्योंकि दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे सोना तो स्वतःसिद्ध है। 'अल्पशः' में जो शस् प्रत्यय लगा है उससे १. यथा भवति तथा-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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