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________________ २६८ धर्मामृत ( सागार) लोकद्वयाविरोधीनि द्रव्यादीनि सदा भजेत् । यतेत व्याघ्यनुत्पत्तिच्छेदयोः स हि वृत्तहा ॥२५॥ द्रव्यादीनि-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकर्मसहायादीनि । व्याध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः । तद्विधिर्यथा 'त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमस्मृतिः । देशकालात्मविज्ञानं सद्वृत्तस्यानुवर्तनम् ।। अनुत्पत्तौ समासेन विधिरेषः प्रदर्शितः । निजागन्तुविकाराणामुत्पन्नानां च शान्तये ॥' [ ] तथा 'नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः । दाता समः सत्यपरः क्षमावानपापसेवीह भवत्यरोगः ।। अर्थेष्वलभ्येष्वकृतप्रयत्नं कृतादरं नित्यमुपायवत्सु । जितेन्द्रियं नानुपतन्ति रोगास्तत्कालयुक्तं यदि नास्ति दैवम् ।।' [ ] वृत्तहा-संयमस्य हन्ता ॥२५॥ अपने मार्गपर रहते हुए, मलवाहक द्वारोंके खुलनेपर, भूख लगनेपर, वायुका निःसरण होते हुए, तथा जठराग्निके उद्दीप्त होनेपर, इन्द्रियोंके प्रसन्न और शरीरमें हलकापन होते हुए विधिपूर्वक नियमित आहार करना चाहिए । वही भोजनका काल माना है। भोजन मात्रामें करना चाहिए। मात्रासे मतलब है जितना सुखपूर्वक पच सके। कहा है-प्रातः और सायंकाल जठराग्निको कष्ट न देते हुए भोजन करना चाहिए । और भी कहा है-'गरिष्ठ पदार्थ भूखसे आधा खाना चाहिए। हलके पदार्थ भी अति मात्रामें नहीं खाना चाहिए । जितना सुखपूर्वक पचे वही मात्राका प्रमाण है।' तथा सात्म्य वस्तु खानेको कहा है प्रकृति विरुद्ध भी खान-पान जिसके संयोगसे खानेपर सुखकारक होते हैं उसे सात्म्य कहते हैं ॥२४॥ श्रावक सदा इस लोक और परलोकमें पुरुषार्थका घात न करनेवाले द्रव्य आदिका सेवन करे । और ऐसा प्रयत्न करे कि रोग उत्पन्न न हो। यदि उत्पन्न हो जाये तो उसे दूर करनेका प्रयत्न करे; क्योंकि रोग चारित्रका घातक है। रोग होनेपर प्रतिदिनका धर्म-कर्म सब छूट जाता है ॥२५॥ विशेषार्थ-रोग उत्पन्न न हो और हुआ हो तो दूर हो जाये, इसकी विधि इस प्रकार कही है-मनुष्यको बुद्धिपूर्वक अपराध करनेका त्याग करना चाहिए। इन्द्रियोंको शान्त रखना चाहिए । देश, काल और अपनेको जानना चाहिए। सदाचारका पालन करना चाहिए। उत्पन्न हुए रोगोंको शान्त करनेका तथा नये रोग उत्पन्न न होनेकी संक्षेपमें यह विधि है । तथा-जो नित्य हितकारक आहार विहार करता है, सोच विचार कर काम करता है, विषयोंमें अनासक्त रहता है । दानशील, समभावी, समशील, क्षमावान तथा पापका सेवन नहीं करता वह नीरोग रहता है। जो अलभ्य पदार्थों के लिए प्रयत्न नहीं करता, उपायसे सम्पन्न हो सकने वाले कार्यों में प्रयत्नशील होता है उस जितेन्द्रियको रोग नहीं होते। किन्तु यदि दैव भी अनुकूल हो तो ॥२५॥ तथाग्नावुदृक्त विशदकरणे देहे च सुलघौ, प्रयुञ्जीताहारं विधिनियमितं कालः स हि मतः ॥' अष्टांगहृ. । १. 'गुरूणामसौहित्यं लघूनां नातितप्तता । मात्रप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं तावद् विजीर्यति ॥' अष्टांगह. । २. 'पानाहारादयो यस्य विरुद्धाः प्रकृतेरपि । सुखित्वायावकल्पंते तत्सात्म्यमिति कथ्यते ॥' अष्टांगहृ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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