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पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय )
सम्यग्गुरूपदेशेन सिद्धचक्रादि चार्चयेत् । श्रुतं च गुरुपादांश्च को हि श्रेयसि तृप्यति ॥ २३ ॥ ॥
सिद्धचक्रं लघु बृहद्वा । आदिशब्देन पार्श्वनाथयन्त्रं, गणधरवलयं सारस्वतयन्त्रमन्यद्वा । सम्यक्त्वसंयमाविरोधेन दृष्टादृष्टेष्टफलप्रसादत्वेन जिनशासने प्रसिद्धम् । एतच्च रहस्यभावात् पदस्थध्याननिरूपणावसरे प्रपञ्चयिष्ये ॥ २३॥
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ततः पात्राणि संतर्प्य शक्तिभक्त्यनुसारतः ।
सर्वांश्चाप्याश्रितान् काले सात्म्यं भुञ्जीत मात्रया ॥२४॥
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काले- बुभुक्षाकालो भोजनकालः । स च ' प्रसृष्टे विण्मूत्र' इत्यादिना प्राग्व्याख्यातः । एतेन मायाह्निक देव पूजा भोजनयोर्नास्ति कालनियम इति बोधयति । तीव्रबुभुक्षुहि मध्याह्लादर्वागपि ...... मात्रया - सुखजरणलक्षणया । यदाह - 'सायं प्रातर्वा वह्निशमनमनवसादयन् भुञ्जीतेति' ॥२४॥
जाता है। अभिषेकके पश्चात् अष्ट द्रव्यसे पूजन करके उनका स्तवन, जप, ध्यान किया जाता है । यह पूजा है । उसके बादकी प्रार्थना वगैरह पूजाफल है । इसीके अनुसार आशाधरजीने भी कथन किया है। जिन भगवान् की स्थापना करनेके स्थानपर अक्षतसे 'श्री' अक्षर बनाकर उसपर भी स्थापना करनेका विधान है ||२२||
अन्य पूजाका उपदेश करते हैं
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सच्चे गुरु के उपदेश से सिद्धचक्र आदिकी तथा शास्त्रकी व दीक्षा देनेवाले आचार्य के चरणों की पूजा करे, क्योंकि अभ्युदय और मोक्षके साधक कार्योंमें कौन तृप्त होता है ||२३|| विशेषार्थ - सच्चे गुरुके उपदेशसे इसलिए कहा है कि पूजन निष्फल न हो और उसमें विघ्न न आवें । विना समझे बूझे स्वयं अपनी समझसे करनेसे ऐसा हो सकता है । सिद्धचक्र विधान लघु भी होता है और बृहत् भी होता है । आदि शब्दसे पार्श्वनाथयन्त्र, गणधर वलययन्त्र, सारस्वतयन्त्र आदि तथा अन्य भी जो सम्यक्त्व और संयम के अविरुद्ध होते हुए जिनशासनमें इहलौकिक और पारलौकिक फलके दाता प्रसिद्ध हैं उनका पूजन करना चाहिए। श्लोकमें जो तीसरा 'च' आया है वह इस बातका सूचक है कि देव, शाख और गुरु तीनों ही समान रूपसे पूज्य हैं । यह प्रश्न हो सकता है कि ये अन्य पूजा किस लिए कही हैं, क्योंकि जिनपूजा से ही समस्त मनोरथोंकी सिद्धि हो जाती है ? इस शंकाके उत्तर में यह कहा गया है कि जिन साधनोंसे जीवका कल्याण होता है उनकी जितनी अधिक प्राप्ति हो उतना ही उत्तम है। उनसे किसीको सन्तोष नहीं होता ||२३||
जिन पूजा आदि करनेके पश्चात् अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पात्रोंको और अपने आश्रित सब प्राणियोंको, जिनमें पालतू पशु भी सम्मिलित हैं, अच्छी तरह से सन्तृप्त करके योग्य कालमें उचित मात्रामें सात्म्य वस्तु खावे ||२४||
विशेषार्थ - यहाँ जो कालमें खानेके लिए लिखा है वह यह बतलाता है कि मध्याह्न कालकी पूजा और भोजनके लिए कोई कालका नियम नहीं है। तीव्र भूख लगनेपर मध्याह्नसे पहले भी ग्रहण किये गये प्रत्याख्यानका निर्वाह करते हुए देवपूजा आदि पूर्वक भोजन करनेवाला श्रावक दोषका भागी नहीं है। भोजन भूखके समय ही करना चाहिए। भोजन शास्त्र में कहा है- 'मल-मूत्रका त्याग करनेपर, हृदयसे स्वच्छ रहते हुए, वात, पित्त, कफके १. 'प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे,
विशुद्धे चोद्वारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति ।
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