SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ धर्मामृत ( सागार ) आश्रुत्य-कर्तव्यतया प्रतिज्ञाय । प्रस्तावनार्थमिदम् । षड्विधं हि देवसेवनमाहुः । यथाह 'प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥' [ सो. उपा. ५२९ ] विशोध्य-रत्नाम्बुकुशाग्निनागसंतर्पणविधिना शोधयित्वा । चतुःकुम्भयुक्कोणायां-चत्वारः कुम्भयुजः पूर्णकलशोपेताः कोणा यस्याः । सकुशधियां--दर्भेश्चन्दननिर्मितश्रीकाराक्षरेण च सहितायाम् । ६ श्रियामित्युपलक्षणम् । तेन ह्रींकारोऽपि लेख्यः । अन्ये तु अक्षतनिर्मितं श्रीकार मेवाहुः । तदुक्तम् 'निस्तषनिव्रणनिर्मलजलार्द्रशालेयतण्डलालिखिते। श्रीकामः श्रीनाथं श्रीवणे स्थापयाम्युच्चैः ।।' [ पुराकर्मेदम् । न्यस्य-स्थोपनीयम् । अन्तमाप्य-आत्मसन्निधि प्रापय्य । सन्निधापनमिदम् । इष्टा-यज्ञांशं प्रापिता जिनयज्ञमभिवर्धयन्तो वानुमोदिता दिशस्तत्स्थदिक्पाला यत्र नीराजनकर्मणि । येन वा श्रावकेण । नीराज्य पूजापुरस्सरं मृत्स्ना-गोमय-भूतिपिण्डदूर्वादर्भपुष्पाक्षतसुचन्दनोदकर्नीराजनं प्रापय्य । रसा:-इक्षु-द्राक्षाम्रादिफलनिर्यासाः। कृतोद्वर्तनं-एलादिचूर्णकल्ककषायैरुद्वर्त्य कृतनन्द्यावर्ताद्यवतरणम् । कुम्भेत्यादि । कुम्भाश्च पूर्वस्थापितकलशजलानि पञ्चसुगन्धशुद्धसलिलानि तैः। संपूज्य-जलादिभिरष्टाभिः सम्यगर्चयित्वा । नुत्वा-नित्यवन्दनाविधिना वन्दित्वा । स्मरेत्-यथाशक्ति जपेद्धयायेच्च ॥२२॥ स्थापित कलशोंके जलसे अभिषेक करे । फिर पूजा करके नित्य वन्दनादि विधिसे नमस्कार करे । फिर यथाशक्ति जप और ध्यान करे ॥२२॥ विशेषार्थ-जिनपूजा विधिके छह प्रकार सोमदेव सूरिने उपासकाध्ययनमें कहे हैंप्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाफल । इनका कथन करते हुए उन्होंने कहा है कि जो प्रतिमामें जिनभगवानकी स्थापना करके पूजन करते हैं उनके लिए अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ध्यान और श्रुतदेवताका आराधन इन छह विधियोंको बताते हैं। अभिषेककी प्रतिज्ञा लेकर स्वयं उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके खड़ा हो, और जिनबिम्बका मुख पूरब दिशाकी ओर करके उनकी स्थापना करे तथा पूजनके समय अपने मन-वचन-कायको स्थिर रखे । देवपूजनके छह प्रकार हैं-प्रस्तावना आदि। पहले प्रस्तावनाको कहते हैं-हे जिनेन्द्र ! आपका परम औदारिक शरीर मलसे रहित है, आप काम आदिका भी सेवन नहीं करते। अतः जलस्नानसे आपको कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी मैं अपने पुण्य संचयके लिए आपका अभिषेक आरम्भ करता हूँ। यह प्रस्तावना है। आगे पुराकमको कह रत्नसहित जलसे तथा कुश और अग्निसे शुद्ध की गयी भूमिमें दूधसे नागेन्द्रोंको तृप्त करके पूर्वादि दश दिशाओंको दूर्वा, अक्षत, पुष्प और कुशसे युक्त करे । वेदीके चारों कोनोंमें पल्लव और फूलोंसे शोभित जलसे भरे चार घटोंको स्थापित करे। यह पुराकर्म है। सिंहासनको शुद्ध जलसे धोनेके पश्चात् उसपर श्री ही लिखकर तथा अर्घ देकर जिनबिम्बकी स्थापना करना स्थापना है। यह जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्र हैं, यह सिंहासन सुमेरु पर्वत है। कलशों में भरा जल साक्षात् क्षीरसागरका जल है। और आपके अभिषेकके लिए इन्द्रका रूप धारण करनेके कारण मैं साक्षात् इन्द्र हूँ। यह सन्निधापन है । इसके बाद पूजा है। इसमें आठों दिग्पालोंको आमन्त्रित करके, जिनबिम्बकी आरती करके भगवानका अभिषेक किया कहते है १. ग्निना सन्त-भ. कु. च. । २. स्थापयित्वा-भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy