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________________ पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय ) उद्यान भोजनं जन्तुयोधनं कुसुमोच्चयम् । जलक्रीडान्दोलनादि त्यजेदन्यच्च तादृशम् ॥२०॥ यथादोषं कृतस्नानो मध्याह्ने धौतवस्त्रयुक् । देवाधिदेव सेवेत निर्द्वन्द्वः कल्मषच्छिदे ॥२१॥ जन्तुयोधनं - पदाति- कुक्कुट - मेषादीनां परस्परसंप्रहारम् । आन्दोलनादि - आदिशब्देन चैत्रसित - प्रतिपदादिषु भस्मव्यतिकारि परिहासादि । तादृशं - द्रव्यभावहिसाबहुलं कौमुदी महोत्सव कुर्दन नाटकाव लोकनं राजसंभ (रास-) क्रीडादिकं ।। २० - २१ ।। स्पष्टम् । आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिलां पोठ्यां चतुष्कुम्भयुक्कोणा सशश्रियां जिनपत न्यस्यान्तमाप्येष्ट दिक् । नीराज्याम्बुर साज्य दुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं सिक्तं कुम्भजलैश्च गन्धसलिलः संपूज्य नुत्वा स्मरेत् ॥ २२ ॥ २६५ विशेषार्थ - व्रती श्रावकको सामूहिक भोजोंमें भोजन करने नहीं जाना चाहिए; क्योंकि वहाँ शुद्ध भोजनकी व्यवस्था सम्भव नहीं होती । शुद्ध भोजनके नामपर जो भोजन वहाँ होता है वह भी वास्तव में शुद्ध नहीं होता । किन्तु आपसदारीके आग्रहवश साधर्मीके भी घर जाना पड़े और वह भी विवाह आदिके समय जिसे टालना शक्य नहीं होता तो रात्रिका बना पक्वान्न नहीं खाना चाहिए; क्योंकि रात्रिके बने भोजन में त्रसजीवोंका घात अवश्य होता है और वे जन्तु उसी भोजनमें गिरकर मरते हैं । तथा जिन लोगोंका आचारविचार ठीक न हो उनसे व्यवहार ही नहीं रखना चाहिए। न आप उन्हें बुलायेंगे, न आपको उनके यहाँ जाना पड़ेगा ||१९|| यह महाश्रावक उद्यानमें भोजन, मुर्गे-मेढ़े आदि जन्तुओंका लड़ाना, पुष्पों का संचय, जलक्रीड़ा, झूला झूलन आदि तथा अन्य भी जो इस प्रकारके कार्य हैं उन्हें न करे, उनका त्याग कर दे ||२०|| विशेषार्थ - मनोविनोदके लिए सब कर्म लोकमें किये जाते हैं। इन सभी कार्यों में निष्प्रयोजन रागादिरूप भावहिंसा तथा जीवघात होता है । ग्रन्थकारने टीकामें लिखा है कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन जो धूलैण्डी खेली जाती है, तथा कौमुदी महोत्सव, कूदना, नाटक देखना, युद्ध देखना, रासक्रीडा आदि ये सब भी नहीं करना चाहिए। ये सब उस समय के मनोरंजन के साधन थे । आजका नया मनोरंजन सिनेमा है इससे बचना चाहिए ||२०|| मध्याह्नकालमें जब साधुओं की भ्रामरी वेलाका समय निकट होता है, अशुद्धि के अनुसार यथायोग्य शरीर प्रक्षालन करके और धुले हुए वस्त्र पहनकर नवीन और पुराने पापोंको नष्ट करने के लिए समस्त प्रकारकी उलझनों से मुक्त होकर देवाधिदेव अर्हन्तदेवकी पूजा करे ॥२१॥ आगे जिन भगवान् के अभिषेक आदि उपासनाकी विधि कहते हैं अभिषेककी प्रतिज्ञा करके अभिषेकको भूमिका शोधन करे । उसपर सिंहासन स्थापित करे । सिंहासनके चारों कोनों में जलसे भरे चार कलश स्थापित करे तथा चन्दनसे 'श्री' और at' अक्षर लिखे । उसपर कुश क्षेपण करे। फिर उसके ऊपर जिनेन्द्र भगवान्‌को स्थापित करे । फिर इष्ट दिशामें खड़े होकर आरती करे। फिर जल, रस, घी, दूध और दहीसे अभिषेक करके नन्द्यावर्त आदिका अवतारण करके पहले सुगन्धित जलसे अन्तमें चारों कोनों में सा.-३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only ६ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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