SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ धर्मामृत ( सागार ) अथ प्राणयात्राविध्यर्थं नवश्लोको माह कदा माधुकरी वृत्तिः सा मे स्यादिति भावयन् । यथालाभेन सन्तुष्ट उत्तिष्ठेत तनुस्थितौ ॥१७॥ माधुकरी-भ्रमरसम्बन्धिनीव पुष्पाणामिव दातृणामनुपपीडनेनात्मपीडन[प्रीणन]हेतुत्वात् । वृत्तिःभिक्षा । सा-सूत्रोक्ता । स्यात्-भविष्यति । उत्तिष्ठेत्-उद्यमं कुर्यात् ॥१७॥ नीरगोरसधान्यैधःशाकपुष्पाम्बरादिभिः। क्रीतैः शुद्धविरोधेन वृत्तिः कल्प्याऽघलाघवात् ॥१८॥ धान्यानि-तण्डुलादीनि । एधांसि-इन्धनानि । अम्बरादि-आदिशब्देन खट्वा-पट्टक९ तृणादि ॥१८॥ समिणोऽपि दाक्षिण्याद्विवाहादौ गृहेऽप्यदन् । निशि सिद्धं त्यजेद्दीनैर्व्यवहारं च नावहेत् ॥१९॥ सधर्मणोऽपि न परं पुत्रादेः । दाक्षिण्यात्-उपरोधवशात् अपि । विवाहादावपि न परमिष्टभोज्यादौ । निशि-रात्रौ। तदा ह्यन्नपाके सघातपातो परिहतुं न शक्यते । हीनैः-सत्त्वधर्मधनादिना त्यक्तरल्पैर्वा सह । व्यवहारं दानप्रतिग्रहणादिलक्षणम् ॥१९॥ तो हर्ष भी न करे । क्योंकि पुरुषार्थकी सफलता या असफलता पूर्व उपार्जित पाप पुण्यका खेल है ॥१६॥ अर्थोपार्जनके बाद भोजन आदिकी विधि नौ श्लोकोंसे कहते हैं मेरी वह माधुकरी भिक्षा कब होगी ऐसा चित्तमें विचार करते हुए जो कुछ लाभ हुआ उतनेसे ही सन्तुष्ट होकर वह श्रावक शरीरकी स्थितिके लिए अर्थात् भोजनादिके लिए उद्यम करे ॥१७॥ विशेषार्थ-धनोपार्जनकी चिन्तासे विरत होनेके बाद महाश्रावकको भोजनादिका प्रबन्ध करना चाहिए। मुनियोंकी भिक्षावृत्तिको माधुकरी वृत्ति कहते हैं। मधुकर भौंरेको कहते हैं। जैसे भौंरा फूलोंको पीड़ा पहुँचाये विना उनसे मधु ग्रहण करता है। उसी तरह साधु भी दाताओंको कष्ट न पहुँचा कर भिक्षा ग्रहण करता है । महाश्रावक यही भावना करता है कि मैं भी मुनियोंकी तरह भोजन ग्रहण करूँ ॥१७॥ अपने द्वारा स्वीकृत सम्यक्त्व और व्रतोंको हानि न पहुँचाकर खरीदे गये जल, दूध आदि, धान्य, ईंधन, शाक, फूल वस्त्रादिके द्वारा कमसे-कम पाप हो, इस तरहसे अपने शरीरका भरण-पोषण करे ॥१८॥ विशेषार्थ-आजके श्रावकोंको यह कथन कुछ अटपटा लग सकता है । किन्तु जो साधारण स्थितिके श्रावक होते हैं, जिन्हें प्रतिदिन कमाकर अपना भरण-पोषण करना पड़ता है। उनकी दृष्टिसे इस कथनको देखना चाहिए। तथा इससे यह भी प्रकट होता है कि महाश्रावकको बहु आरम्भी और बहुसंचयी नहीं होना चाहिए। प्रतिदिनके लिए आवश्यक वस्तुओंको प्रतिदिन खरीदकर काम चलाना चाहिए । ग्रन्थकार मारवाड़के थे और मारवाड़में पानी दुर्लभ है। इसलिए खरीदी वस्तुओंमें उन्होंने जलको भी लिया है ॥१८॥ आग्रहवश साधर्मीके भी घरमें, वह भी विवाह आदि में भोजन करना पड़े तो रात्रिमें बनाया गया भोजन न करे। तथा जो धर्म हीन हैं या आचार-विचारमें हीन हैं ऐसे गृहस्थोंके साथ देन लेन खान-पानका व्यवहार न करे ॥१९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy