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________________ पञ्चदश अध्याय (षष्ठ अध्याय ) २६३ मध्ये जिनगृहं हासं विलासं दुःकथां कलिम् । निद्रां निष्ठयूतमाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ॥१४॥ एवं धर्मविधिमुपदिश्येदानीमर्थचिन्तामनूद्य तद्विधिमाह ततो यथोचितस्थानं गत्वाऽर्थेऽधिकृतान् सुधीः। अधितिष्ठद्वयवस्येद्वा स्वयं धर्माविरोधतः ॥१५॥ अर्थऽधिकृतान-अर्थस्यार्जने रक्षणे वर्धने च नियुक्तान । धर्माविरोधत:-जिनधर्माबाधया। धर्माविरोधश्च राज्ञां दरिद्रेश्वरयोर्मान्यामान्ययोरुत्तमनीचयोर्माध्यस्थ्येन न्यायदर्शनात, नियोगिनां च राजार्थप्रजार्थसाधनेन, वणिजां च कुटतुलामानादिररिहारेण वनजीविकादिपरिहारेण च बोद्धव्यः ॥१५॥ अथ पौरुषस्य नैष्फल्यसाफल्यादी विषादहर्षपरिहारार्थमाह निष्फलेऽल्पफलेऽनर्थफले जातेऽपि पौरुषे । न विषीदेन्नान्यथा वा हृषेल्लीला हि सा विधेः॥१६॥ अन्यथा-बहुफले सफले अर्थानुबन्धिफलेऽपि जाते पौरुष इत्यर्थः । सा पौरुषस्य निष्फलत्वादिजनन- १२ लक्षणा ॥१६॥ चाहिए । तत्त्वोंके बोधका नाम ज्ञान है और समस्त प्राणियोंके दुःखोंको दूर करनेकी अभिलाषाका नाम दया है । किसीको कष्ट में देखकर कोरी सहानुभूति दिखानेका नाम दया नहीं है । उस कष्ट को दूर करनेका प्रयत्न करना दया है ॥१३॥ इस प्रकार करने योग्य आचरणका उपदेश देकर न करने योग्य आचरणका उपदेश करते हैं जिनालयमें हास्य, श्रृंगार युक्त चेष्टा रूप विलास, खोटी कथा, कलह, निद्रा, थूकना और चारों प्रकारका आहार, ये सात कार्य नहीं करना चाहिए ॥१४|| इस प्रकार प्रातःकालीन धार्मिक कृत्योंका उपदेश देकर उसके बाद करने योग्य धन कमाने आदिकी विधिको कहते हैं प्रातःकालीन धार्मिक कर्म समाप्त करनेके बाद इस लोक और परलोक सम्बन्धी हित अहितके विचारमें चतुर श्रावक धनके उपार्जन करनेके योग्य अपनी दूकान आदि स्थानपर जाकर धनके कमाने, बढ़ाने और रक्षणमें नियुक्त अपने कर्मचारियोंकी देख-भाल करे । यदि इतना बड़ा कारभार नहीं है तो स्वीकार किये गये जिनधर्मका घात न करते हुए स्वयं व्यवसाय करे ॥१५॥ विशेषार्थ-यहाँ जो धर्मका घात न करते हुए व्यवसाय करनेके लिए कहा है उसका अभिप्राय यह है कि राजाओंको गरीब, अमीर, उत्तम, नीच, सम्मान्य और अमान्य व्यक्तियोंका विचार न करते हुए माध्यस्थ भावसे न्याय करना चाहिए। उनके कर्मचारियोंको राजा और प्रजा दोनोंका हित साधते हुए अपना काम करना चाहिए। व्यापारियोंको कमती तोलना, बढ़ती लेना, कम नापना आदि नहीं करना चाहिए, तथा जंगल आदि सम्बन्धी क्रूर कर्मोसे आजीविका नहीं करनी चाहिए ॥१५॥ व्यापारमें होनेवाले हानि लाभसे हर्ष विषाद न करनेका उपदेश करते हैं यदि पुरुषार्थ निष्फल हो जाये अर्थात् व्यापारमें कुछ भी लाभ न हो, या थोड़ा लाभ हो, या अनर्थफल हो अर्थात् व्यापार में लगायी पूँजी ही डूब जाये तो खेदखिन्न नहीं होना चाहिए। इससे विपरीत होनेपर अर्थात् यदि पुरुषार्थ सफल हो जाये, या प्रचुर लाभ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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