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________________ २६० धर्मामृत ( सागार) 'उत्पादव्ययनित्यतात्मपदिति न्वक्षि क्षि वा (?) दभ्यासप्रतिबन्धकक्षयमुखप्रग्राहितानुग्रहात् ।। यः सांसिद्धिकबोधमाप्यपरसं पश्यन् समग्रं समं हस्तस्थामलकोपमं प्रदिशति स्याद्वादमव्यात्स माम् ॥' [ ] इत्यादि । यथा वा पांच (?) प्रावोचन् 'तत्त्वेषु प्रणयः परोऽस्य मनसः श्रद्धानमुक्तं जिनैः, तत्तु द्वित्रिदशप्रभेदविषयं व्यक्त चतुभिर्गुणैः। अष्टाङ्गं भुवनत्रयाचितमिदं मूढरपोढं त्रिभिश्चित्ते देव दधामि संसृतिलतोल्लासावसानोत्सवम् ।।' 'ते कुर्वन्तु तपांसि दुर्धरधियो ज्ञानानि संचिन्वतां, वित्तं वा वितरन्तु देव तदपि प्रायो न जन्मच्छिदः । एषा येषु न विद्यते तव वचःश्रद्धावधानोधुरा, दुष्कर्माङ कुरकुञ्जवज्रदहनद्योतावदाता रुचिः॥' [ सो. उपा. ४९४-४९५ श्लो. ] अपि च 'यदेतद्वो वक्त्राम्बुरुह कुहरात्सूक्तमपतत्विमुक्तानां बीजप्रकर इव काले क्वचिदपि । ...............ज्ञानामृतसरसमूलाङ्कुरभृतः क्रमाज्जायन्तेऽमी फलभरभृतो मुक्ततरवः ॥' [ न तु यथाऽपरे प्राहु: 'एक ध्याननिमीलनात्मुकुलितं चक्षुद्वितीयं पुनः, पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारभारालसम् । अन्यद्रविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितं, शम्भोभिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥' [ __ विशेषार्थ-भगवान्के ज्ञान, वैराग्य आदि गुणोंको व्यक्त करते हुए अशुभ कर्मकी निर्जरा और पुण्यकर्मका आस्रव करनेवाली स्तुति पढ़ना चाहिए। -'मैंने आज यह जिनालय देखा जो स्याद्वाद विद्यारूपी रसके स्वादसे आनन्दामृतके समुद्र में डुबकी लगानेवाले भव्योंको आनन्दित करता है। यहाँ आकर चित्त परम प्रसन्न होता है। पशु भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करके भक्तिके पात्र बनते हैं।' सोमदेवाचार्यने कहा है-'जिनेन्द्रदेवने तत्त्वोंमें मनकी अत्यन्त रुचिको सम्यक्त्व कहा है। इस सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेद हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य गुणके द्वारा सम्यक्त्वकी पहचान होती है। उसके आठ गुण हैं, वह तीन मूढ़ताओंसे रहित होता है। हे देव! संसाररूपी लताका अन्त करनेवाले और त्रिलोक-पूज्य उस सम्यग्दर्शनको मैं हृदयमें धारण करता हूँ।' हे देव ! जिनकी आपके वचनोंमें एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्मरूपी अंकुरोंके समूहको भस्म करनेके लिए वज्राग्निके प्रकाशकी तरह निर्मल है, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें, कितना ही ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दे फिर भी जन्मपरम्पराका छेदन नहीं कर सकते; इत्यादि । ऐसी स्तुति नहीं करनी चाहिए जैसी अन्य मतोंमें की जाती है। जैसे शिवकी स्तुतिमें कहा है-'शिवकी एक आँख तो ध्यानसे बन्द है और दूसरी पार्वतीके स्थूल नितम्बोंपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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