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________________ तथा पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय ) ' स वः पायात्कला चान्द्री यस्य मूर्ध्नि विराजते । गौरी नखाग्रधारेव भग्नरूढा कचग्रहे ॥' [ इत्यादि ॥९॥ ] सेयमास्थायिका सोऽयं जिनस्तेऽमी सभासदः । चिन्तयन्निति तत्रोच्चैरनुमोदेत धार्मिकान् ॥१०॥ आस्थायिका – समवसरणम् । अनुमोदेत - साधु इमेऽनुतिष्ठन्तीति मनसाऽभिनन्देत् । धार्मिकान् - धर्मः चरतः ॥ १०॥ २६१ है, तीसरी आँख दूर में स्थित अपना धनुष ताने कामदेवको भस्म करनेके लिए क्रोधरूपी आगसे उद्दीपित है । इस प्रकार समाधिके समय में भिन्न रसवाले तीनों नेत्र हमारी रक्षा करें ।' तथा - 'जिसके मस्तकपर चन्द्रमाकी कला पार्वतीके बालोंके अग्रभागकी धाराके समान शोभित होती है जो बाल खींचते समय गढ़ गयी थी, वे शम्भु हमारी रक्षा करें ।' इत्यादि ॥९॥ अथेर्यापथसंशुद्धि कृत्वाऽभ्यर्च्य जिनेश्वरम् । श्रुतं सूरि च तस्याग्रे प्रत्याख्यानं प्रकाशयेत् ॥११॥ ईर्यापथं - ईर्ष्या ईरणं गमनं, पन्था मार्गो यस्य तदीर्यापथं विराधनं, तस्य संशुद्धिः सम्यक् । शोधनं प्रतिक्रमणमित्यर्थः । अभ्यर्च्य - ' जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोक्कारं करेमीति वचनात् प्रतिक्रमणानन्तरं १२ 'नमोऽहं द्रयः' इत्यनेन - यह जिनमन्दिर ही वह आगम प्रसिद्ध समवसरण भूमि है । यह प्रतिमा में स्थापित जिन ही आगममें प्रसिद्ध अष्ट महाप्रातिहार्य आदि विभूतिसे भूषित अर्हन्तदेव हैं। ये आराधना करनेवाले भव्य ही आगम प्रसिद्ध सभ्य हैं जो समवसरणकी बारह सभाओं में बैठते हैं, ऐसा विचार करते हुए जिनमन्दिर में धर्म का पालन करनेवाले गृहस्थों और मुनियोंकी बारम्बार अनुमोदना करे कि ये सब उत्तम कार्य करते हैं ॥१०॥ Jain Education International विशेषार्थ - जिनमन्दिर यथार्थ में समवसरणके ही प्रतिरूप हैं । जैसे समवसरण में साक्षात् अर्हन्तदेव विराजमान रहते हैं वैसे ही जिनमन्दिर में भी उसी मुद्रामें जिनमूर्ति विराजमान रहती है। समवसरणमें भगवान् के बाह्यरूपके ही दर्शन होते हैं । जिनमन्दिरमें भी जिनमूर्तिके द्वारा उसी रूपके दर्शन होते हैं । अन्तर इतना ही है कि समवसरणमें भगवान्के मुखसे निकली दिव्य ध्वनिको सुननेका सौभाग्य प्राप्त होता है । जिनमन्दिर में वह सौभाग्य प्राप्त नहीं है । इसीसे जिनमूर्तिके साथ जिनवाणी भी स्थापित रहती है । यदि जिनमूर्ति के दर्शन करनेके पश्चात् जिनवाणीका स्वाध्याय भी किया जाये तो साक्षात् समवसरणका लाभ प्राप्त हो सकता है । मन्दिर में उपस्थित श्रावक ही समवसरण में उपस्थित समुदाय है । ऐसा विचार करते हुए श्रावकको धार्मिक पुरुषोंकी हृदयसे अनुमोदना करनी चाहिए ||१०|| प्रणामपूर्वक पुण्य स्तुतिके पाठ और प्रदक्षिणा करनेके पश्चात् ईर्यापथ शुद्धि करके और देव शास्त्र गुरुकी पूजा करके पहले घर में लिये हुए व्रतादिको गुरुके सामने प्रकट कर दे ॥११॥ For Private & Personal Use Only ३ දී www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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