SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय ) अथानुवादमुखेन चैत्यालयव्रजनविधिमाहयथाविभवमादाय जिनाद्यर्चनसाधनम् । व्रजन् कौत्कुटिको देशसंयतः संयतायते ॥६॥ कौत्कुटिकः - पुरो युगमात्र प्रेक्षी ॥६॥ दृष्ट्वा जगद्बोधकरं भास्करं ज्योतिरार्हतम् । स्मरतस्तद्गृहशिरोध्वजालोकोत्सवोऽघहृत् ॥७॥ ज्योतिः -- ज्ञानमयं वाङ्मयं वा । अघहृत् - पापहरो भवतीत्यर्थः ॥७॥ वाद्यादिशब्द- माल्यादिगन्ध-द्वारादिरूपकैः । चित्रैरारोहदुत्साहस्तं विशेन्निसही गिरा ॥८॥ वाद्यादि-आदिशब्देन धूपचूर्णादि । द्वारादि-आदिशब्देन तोरणस्तम्भशिखरादि ॥ ८ ॥ क्षालिताङ्घ्रिस्तथैवान्तः प्रविश्यानन्दनिर्भरः । त्रिः प्रदक्षिणयेन्नत्वा जिनं पुण्याः स्तुतीः पठन् ॥९॥ तथैव — निःसहिगिरैव । प्रदक्षिणयेत् - प्रदक्षिणीकुर्यात् । करणेनाशुभकर्मनिर्जरणी: पुण्याश्रवणीश्च । यथा स्वयमेवावोचत् - 'दृष्टं श्रीमदिदं जिनेन्द्रसदनं स्याद्वादविद्या रसस्वादाह्लादसुधाम्बुधिप्लवकिलद्भव्यौघक्लृप्तोत्सवम् । अत्रासाद्य सपद्यधिधुरां चित्तप्रसति परां भक्तुं पशवोऽपि सदृशमलं मुक्तिश्रियः संफलीम् ॥' २५९ यह दारिद्रयका दुःख पापकर्मका फल है । इसे कौन टाल सकता है । अतः बुद्धिमान्को इसमें खेद खिन्न नहीं होना चाहिए ||५|| पुण्याः - ज्ञानसंवेगादिगुणप्रव्यक्ती आगे जिनमन्दिरको जानेकी विधि बताते हैं अपनी सम्पत्तिके अनुसार देव, शास्त्र, गुरुके पूजनकी सामग्री लेकर मुनिके समान चार हाथ जमीन आगे देखकर चलनेवाला श्रावक मुनिके समान आचरण करता है || ६ || _जगत्के सोते हुए प्राणियोंकी निद्राको दूर करके जगत्को बोध देनेवाले सूर्यको देखकर बहिरात्मा प्राणियोंकी मोहनिद्राको दूर करनेवाले अर्हन्तके ज्ञानमय या वचनमय तेजका स्मरण करते हुए जानेवाले श्रावकको जिनमन्दिरके शिखरपर लगी हुई ध्वजाको देखकर जो आनन्द होता है वह पापको हरनेवाला है ||७|| नाना प्रकारके और आश्चर्यको करनेवाले प्रभातकालमें बजने वाले बाजोंके, स्वाध्याय, स्तुति तथा मंगल गीतोंके शब्दोंसे, चम्पेके फूलों आदिकी मालाओं तथा सुगन्धित धूपकी गन्धसे और द्वार, तोरण, स्तम्भ तथा शिखरपर बने चेतन-अचेतन प्रतिरूपोंके देखने से जिसका धर्माचरणका उत्साह बढ़ गया है ऐसा वह श्रावक 'निसही' शब्दका उच्चारण करते हुए जिनमन्दिर में प्रवेश करे ||८|| Jain Education International पैर धोकर ‘निसही-निसही' कहते हुए ही जिनालय के भीतर प्रवेश करे । और आनन्दसे गद्गद् होते हुए जिन भगवान्‌को तीन बार नमस्कार करे । तथा ज्ञान और वैराग्य आदिको प्रकट करनेवाली होनेसे अशुभ कर्मोंकी निर्जरा और पुण्यकर्मका आस्रव करनेवाली स्तुतियाँ पढ़ते हुए तीन प्रदक्षिणा करे ||९|| For Private & Personal Use Only ६ ९ १२ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy