________________
२५८
धर्मामृत ( सागार)
तथा
'दुःखक्षतिः कर्महतिः समाधिमरणं गतिः।
सुगतो बोधिलाभोऽहंद्गुणसंपच्च सन्तु मे ॥ [ तथा शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिरित्यादि ॥४॥
साम्यामृतसुधौतान्तरात्मराजज्जिनाकृतिः।
दैवादैश्वर्यदौर्गत्ये ध्यायन् गच्छेजिनालयम् ॥५॥ ततः दैवात्-पुराकृतशुभाशुभकर्मविपाकात् । इदमत्रैदंपर्य यदीश्वरो महधिको राजा सामन्तादिर्वा भवति तदा पुण्यविपाकप्रभवा सम्पदियं न पौरुषेयी। तदस्यां कथमात्मज्ञो मदमुपेयादिति भावयन् गच्छेत् । अथ दरिद्रस्तदा पापविपाकजनितमिदं दारिद्रयदुःखं न केनापि छेत्तुं शक्यं तदत्र को बुद्धिमान् विषादमासीदतीति भावयन् गच्छेदिति ॥५॥
चाहिए । इष्ट प्रार्थना से यह मतलब नहीं है कि संसार सम्बन्धी धन, पुत्र आदि प्राप्तिकी या किसीके इष्ट-अनिष्टकी प्रार्थना करनी चाहिए। किन्तु 'हे भगवन् , पुनः आपके दर्शन हों, या मेरा समाधिपूर्वक मरण हो'। कहा है-'हे जिनराजरूपी चन्द्रमा, मैंने तुम्हें खिले हुए नेत्ररूपी कमलोंसे देखा, तुम्हारी नमस्काररूप चाँदनीके जल में स्नान किया, आज मेरा सब थकान चला गया, मैंने शान्ति प्राप्त की। हे देव ! आपका पुनः दर्शन हो।' या मेरे दुख नष्ट हों, कर्मोका विनाश हो. समाधिमरणपूर्वक गति हो, ज्ञानकी प्राप्ति हो, अहंद् गुणोंकी सम्पत्ति प्राप्त हो। इत्यादि प्रार्थना करके भगवान्को पंचांग नमस्कार करके ही बाहर जाना चाहिए। अभी तक उसने यह सब प्रातःकालीन धार्मिक कृत्य घरके मन्दिर में किया है । पहले घरोंमें भी धर्मसाधनके लिए चैत्यालय होते थे। उसमें उक्त धार्मिक कृत्य करनेके बाद श्रावक बड़े मन्दिरमें जाता था। उसीका आगे कथन करते हैं ॥४॥
__ समता परिणामरूपी अमृतसे अच्छी तरह धोये गये अर्थात् विशुद्धिको प्राप्त हुए अन्तरात्मामें अर्थात् स्व और परके भेदज्ञानके प्रति उन्मुख हुए अन्तःकरणमें परमात्माकी मूर्तिको सुशोभित करते हुए श्रावक जिनालयमें जावे। तथा अमीरी-गरीबी भाग्यका खेल है यह विचारता हुआ जावे ।।५।।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि ही श्रावक होता है । और सम्यग्दृष्टि समता परिणामवाला और भेदविज्ञानी होता है। जीवन-मरण, इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःखमें जिसका समान भाव होता है वह समता परिणामवाला होता है। ऐसा परिणाम वस्तुस्वरूपका विचार किये बिना नहीं होता और वस्तुस्वरूप विचारनेसे ही स्व और परका भेदज्ञान होता है। यह भेदज्ञान ही सम्यक्त्वका मूल है। अतः मन्दिरकी ओर जानेवाले श्रावकका अन्तरात्मा अर्थात् स्व और परके भेदज्ञानकी ओर झुका हुआ अन्तःकरण समता भावरूपी अमृतसे, अमृत जलको भी कहते हैं, अच्छी तरह धोया जानेसे विशुद्ध हो गया है। उस विशुद्ध हुए अन्तःकरणमें जिनमूर्ति शोभायमान है जिसका वह प्रत्यक्ष दर्शन करने जा रहा है। ऐसे विशुद्ध अन्तःकरण वालोंको यथार्थ में जिनमूर्तिके दर्शन होते हैं। जिन-दर्शनार्थी अमीर भी होते हैं और गरीब भी होते हैं। यदि धनसम्पन्न व्यक्ति हो तो उसे विचारना चाहिए यह सम्पत्ति पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुई है, इसमें पुरुषार्थकी महत्ता नहीं है । तब कोई आत्मज्ञानी सम्पत्तिका मद कैसे कर सकता है। यदि दरिद्र हो तो उसे विचारना चाहिए कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org