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________________ २५७ पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय) अनावी बम्भमन् घोरे संसारे धर्ममार्हतम् । श्रावकीयमिमं कृच्छ्रात् किलापं तदिहोत्सहे ॥२॥ ततः कृच्छ्रात् 'जगत्यनन्तक' इत्यादिना प्रागुक्तात् ॥२॥ इत्यास्थायोस्थितस्तल्पाच्छुचिरेकायनोऽर्हतः। निर्मायाष्टतयोििष्ट कृतिकर्म समाचरेत ॥३॥ आस्थाय-प्रतिज्ञाय । शचिः-शरीरचिन्तां कृत्वा विधिवद्विहितशौचदन्तधावनादिक्रियः । एतच्चानुवादपरं लोकप्रसिद्धत्वात मलोत्सर्गाद्यर्थस्य नोपदेशः । परमप्राप्ते शास्त्रस्यार्थवत्त्वादेवमुत्तरत्राप्यप्राप्त आमुष्मिकादिविषयं उपदेशः फलवानिति चिन्त्यम् । एकायन:-एकाग्रमनाः । इष्टि-पूजां । कृतिकर्म-योग्यकालासनेत्यादिना प्राक् प्रबन्धेन सूचितप्रायं वन्दनाविधानम् ॥३॥ समाध्युपरमे शान्तिमनुध्याय यथाबलम् । प्रत्याख्यानं गृहीत्वेष्टं प्रार्थ्य गन्तं नमेत् प्रभुम ॥४॥ शान्ति-'येऽभ्यचिंता मुकुटकुण्डलहाररत्नरित्यादिप्रबन्धेन श्रूयमाणम् । प्रत्याख्यानं-भोगोप- १२ भोगादिनियमविशेषम् । इष्टं-वाञ्छितं पुनदर्शनसमाधिमरणादिकम् । यथाह 'दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र विकसद्भूपेन्द्रनेत्रोत्पलैः, स्नातस्त्वन्नतिचन्द्रिकाम्भसि भवद्विवच्चकोरोत्सवे । नीतश्चाद्य निदाघज:क्लमभरः शान्ति मया गम्यते, देव त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात्पुनदर्शनम् ॥' [ जिनच० २६ ] आगममें कहा है कि इस अनादि घोर संसारमें भटकते हुए मुझे अर्हन्त भगवानके द्वारा कहा गया यह श्रावक सम्बन्धी धर्म बड़े कष्टसे प्राप्त हुआ है। इसलिए इस अत्यन्त दुर्लभ धर्म में मुझे प्रमाद छोड़कर प्रवृत्त होना है ।।२।। विशेषार्थ-आगममें कहा है कि इस संसारकी आदि नहीं है। जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीजकी सन्तान चलती आती है वैसे ही यह संसार भी अनादि कालसे चलता आता है। संसारका अर्थ ही परिभ्रमण है. यह परिभ्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूपसे पाँच प्रकारका है। इसमें जीव अनादिकालसे भटक रहा है । भटकते-भटकते यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ और उसमें भी भगवान वीतराग सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित सच्चा धर्म प्राप्त हुआ। उस धर्मको समझकर मैंने सम्यग्दर्शन पूर्वक श्रावकके व्रत स्वीकार किये । अब मुझे प्रमाद छोड़कर इन व्रतोंको पालना चाहिए ऐसा विचार गृहस्थको करना चाहिए ॥२॥ इस प्रकारसे प्रतिज्ञा करके शय्यासे उठे और विधिवत् शौच दातौन स्नान आदि करके एकाग्रमन होकर आठ द्रव्योंसे देव शास्त्र गुरुकी पूजा करके पहले अनगार धर्मामृतमें कहे अनुसार योग्य काल आसन आदि पूर्वक वन्दना विधानरूप कृतिकर्मको सम्यक् रीतिसे करे ॥३॥ अवश्य करणीय धर्मध्यानसे निवृत्त होनेपर शान्तिभक्तिका चिन्तन करके शक्तिके अनुसार भोग-उपभोग सम्बन्धी नियमविशेष लेकर इष्टकी प्रार्थना करे। और इस प्रकार क्रिया करके इच्छित स्थानपर जानेके लिए अर्हन्त देवको पंचांग नमस्कार करे ॥४॥ विशेषार्थ-पूजनके बाद कृतिकर्म, कृतिकर्मके पश्चात् 'येऽभ्यचिता' इत्यादि शान्तिपाठ पढ़ना चाहिए। यह शान्तिपाठ ही शान्तिभक्ति है जो अवश्य करना चाहिए। उसके बाद उस दिनके लिए कुछ नियम लेना चाहिए। तब भगवान के सामने इष्ट प्रार्थना करना सा.-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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