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________________ पञ्चदश अध्याय (षष्ठ अध्याय) इदानीमाहोरात्रिकाचारं श्रावकस्योपदेष्टुकामः पूर्व पौर्वाहिकी मितिकर्तव्यतां चतुर्दशभिः श्लोकै३ ाकरोति ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय वृत्तपञ्चनमस्कृतिः। कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चेति परामृशेत् ॥१॥ उत्थाय-विनिद्रीभूय । वृत्तपञ्चनमस्कृतिः-अन्तर्जल्पेन बहिर्जल्पेन वाऽपि पठितपञ्चनमस्कारः । कोऽहं क्षत्रियो ब्राह्मणादिर्वा इक्ष्वाकुवंशोद्भवोऽन्यवंशोद्भवो वाऽहमित्यादि चिन्तयेत् । को मम धर्मः जैनोऽन्यो वा, श्रावकीयो यत्यादिसम्बन्धि वा मे देवादिसाक्षिक प्रतिपन्नो वृषः। किं व्रतं मूलगुणरूपमणुव्रतादिरूपं वा ९ मम । चशब्दात् के गुरवो ममेति । कुत्र ग्रामे नगरादौ वा वसामि । कोऽयं कालः प्रभातादिरिति चेत्यादि समुच्चीयते । स्ववर्णादिस्मृतौ हि तद्विरुद्धपरिहारस्य सुकरत्वात् ।।१।। अब श्रावककी दिनचर्याका कथन करनेकी भावनासे सर्व प्रथम चौदह श्लोकोंके द्वारा प्रातःकालकी क्रियाविधिका कथन करते हैं ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर पंचनमस्कार मन्त्रको पढ़नेके बाद 'मैं कौन हूँ' मेरा क्या धर्म है, मेरा क्या व्रत है इस प्रकारसे विचार करे ॥१॥ विशेषार्थ-रात्रिके अन्तिम मुहूर्तको ब्राह्म मुहूर्त कहते हैं। ब्राह्मी कहते हैं सरस्वतीको । वही उसकी देवता मानी जानेसे उसे ब्राह्म मुहूर्त कहते हैं। कही भी है कि 'ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सब कार्योंका विचार करे। क्योंकि उस समय हृदयमें सरस्वतीका निवास होता है। उस समय उठकर श्रावकको सबसे पहले मन ही मनमें या बोलकर 'णमो अरहंताणं' इत्यादि पंच नमस्कार मन्त्रको पढ़ना चाहिए । उसके बाद यह विचारना चाहिए कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या धर्म है और मेरे कौन-सा व्रत है। यदि प्रतिदिन प्रातःकाल उठते ही इन बातोंका विचार कर लिया जाय तो उससे मनुष्य अपने प्रति जाग्रत रहता है अन्यथा संसारके व्यवहार में पड़कर अपनेको अपने धर्मको और अपने व्रतादिको भूल जाता है। धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है और व्रतका सम्बन्ध धर्मसे है। आत्माके स्वरूपके प्रति जागृति रहेगी तो धर्मके प्रति जागृति रहेगी और धर्म के प्रति जागृति रहेगी तो व्रतादिके प्रति भी सावधानता रहेगी। अतः 'मैं कौन हूँ' के साथ मैं कहाँसे आया हूँ, यहाँ कब तक रहूँगा और फिर कहाँ जाऊँगा इन बातोंको भी विचारते रहना चाहिए। इससे यह मिथ्या भावना कि मैं सदा यहीं रहूँगा मिटेगी और हम अपने आत्मिक कर्तव्यके प्रति भी सावधान रह सकेंगे ॥१॥ १. ब्राह्म मुहूर्त उत्तिष्ठेत् परमेष्ठिस्तुति पठन् । किंधर्मा किंकुलश्चास्मि किंवतोऽस्मीति च स्मरन् ।' -योगशास्त्र ३११२२ २. ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय सर्वकार्याणि चिन्तयेत् । यतः करोति सान्निध्य तस्मिन् हृदि सरस्वती ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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