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________________ २५५ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय) ऋजुभूतमनोवृत्तिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥' [ अमि. १३।१-२ ] इति भद्रम् । इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां चतुर्दशोऽध्यायः । नहीं है। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रियकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय सर्वप्रथम रक्षणीय है क्योंकि उसमें संचेतना अधिक है। यह सब कहनेका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शनकी शुद्धता, व्रतोंसे भूषित होना, निर्मल शीलरूपी निधिसे सम्पन्नता, संयममें निष्ठा, जिनागमका ज्ञान, गुरुओंकी सेवा, दया आदि सदाचारमें तत्परता, इन सात गुणोंके होनेसे कोई पुण्यशाली व्यक्ति कालादि लब्धि विशेषसे महाश्रावक होता है। आचार्य अमितगतिने कहा है-सात प्रकारका श्रावक उत्तम होता है-१. जिसका सम्यक्त्व चन्द्रमाके समान निर्मल है, २. जो व्रतोंसे भूषित है, ३. शीलरूपी रत्नोंकी महाखान है, ४. पवित्र गुणोंका सागर है, ५. जिसकी मनोवृत्ति सरल है, ६. जो गुरुकी सेवामें तत्पर रहता है, तथा ७. जिनागमका ज्ञाता है ।।५५।। इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मकी संस्कृत टीका तथा ज्ञानदीपिकानुसारिणी हिन्दी टीकामें प्रारम्भसे १४वाँ तथा सागारधर्मको अपेक्षा पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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