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________________ ३ ६ ९ २५४ धर्मामृत ( सागार ) अथ प्रकृतार्थोपसंहारपुरस्सरमुक्तशेषं निर्दिशन् श्रावकस्य महाश्रावकत्वमाह - एवं पालयितुं व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामलान्यापूर्णः समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । वैयावृत्यपरायण गुणवतां दीनानतीवोधुरं देवसिकीमिमां चरति यः स स्यान्महाश्रावकः ॥५५॥ आगूर्ण:- : - उद्यतः । वैयावृत्यं - संयतानामुपकारः । तदुक्तम् — 'व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥' [ र. श्रा. ११२ ] दीनान् - अवृत्तिव्याधिशोकार्तान् । उक्तं च- 'शशाङ्कामलसम्यक्त्वो व्रताभरणभूषितः । शीलरत्न महाखानिः पवित्रगुणसागरः ॥ आगे उक्त व्रत प्रतिमाके कथनका उपसंहार करते हुए श्रावकके महाश्रावक होनेकी घोषणा करते हैं इस प्रकार पाँचों अणुव्रतोंका पालन करनेके लिए निरतिचार सात शीलोंको जो पालता है, समितियोंका पालन करनेमें तत्पर रहता है, जिसके मनमें परापर गुरुओंके वचन, रूपी दीपक सदा प्रकाशमान रहता है, जो गुणवान् पुरुषोंकी वैयावृत्य करने में तत्पर तथा आजीविकाका अभाव, रोग-शोक आदिसे पीड़ित दीन पुरुषोंको दुःखोसे छुड़ाता है और आगे कही जानेवाली दिनचर्याका पालन करता है वह महाश्रावक होता है ॥५५॥ विशेषार्थ - जो गुरुओंसे तत्त्व सुनता है वह श्रावक है यह श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति है | किन्तु तत्त्वको सुननेका प्रयोजन केवल कान पवित्र करना नहीं है किन्तु आचारमार्ग - पर चलना है । मैं सम्यग्दर्शनपूर्वक निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन करूँगा इस अभिप्राय से वह तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का भी निरतिचार पालन करता है तथा यथायोग्य ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और उत्सर्ग इन पाँच समितियोंका भी पालन करता है । ये समितियाँ मुनियोंके ही लिए नहीं हैं, मुनि बनने के इच्छुक श्रावकको भी इनका अभ्यास करना चाहिए । आगम में कहा है कि यदि अणुव्रत और महाव्रत समिति के साथ होते हैं तो संयम कहलाते हैं और यदि समिति के साथ नहीं होते तो उन्हें केवल विरति कहते हैं। मुमुक्षु श्रावकको श्रुतज्ञानी भी होना चाहिए। गुरु महाराजके कहने से व्रत धारण कर लिये और व्रतका ठीक-ठीक स्वरूप भी नहीं मालूम तो वह कैसा व्रती है ? भगवान्का वचनरूपी परमागम स्वपरका प्रकाशक होनेसे दीपक के समान है । यह परमागमरूपी दीपक उसके अन्तःकरण में सदा जलता रहना चाहिए। उसे नित्य स्वाध्याय करना चाहिए । साथ ही जो रत्नत्रयके आराधक हैं उनकी वैयावृत्य करनेके लिए तैयार रहना चाहिए । निर्दोष वृत्तिसे कष्ट दूर करनेको वैयावृत्य कहते हैं । शीतऋतु में मुनिको गर्म वस्त्र देना वैयावृत्य नहीं है और न घड़ी या ट्रांजिस्टर और मोटर देना ही वैयावृत्य है । यह सब तो मुनिको संयम से युत करने के साधन हैं। उनके स्वास्थ्यकी, स्वाध्यायकी, आत्मसाधनाकी व्यवस्था करना ही सच्चा वैयावृत्य है । साधुओंकी तो वैयावृत्य करे और दीन-दुःखियों की उपेक्षा करे तो उसे दयालु कौन कहेगा । मुनिको मोटर दे और भूखेको भोजन भी न दे तो कैसा श्रावक है । चींटा चींटीकी रक्षा करना और मनुष्यपर दया न करना तो अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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