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चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय)
२५३
तच्चादानबुद्धया तत्र निक्षिप्यमाणमतिचारः। तुच्छबुद्धिः खलु सचित्तनिक्षिप्तं किल संयता न गृह्णन्ति इति अभिप्रायेण देयं सचित्ते निक्षिपति । तच्च संयतेष्वगृत्सु लाभोऽयं ममेति च मन्यते इति प्रथमः। तदावृति:-तेन सचित्तेन पत्रपुष्पादिना तथाविधयव बुद्धया आवृति आच्छादनं द्वितीयः । अथवा सचित्तनिक्षिप्तं तत्पिहितं च संयतस्याज्ञानतः प्रयुज्यमानमतिचारः। कालातिक्रमः-साधूनामुचितस्य भिक्षासमयस्य
म् । स च यतीनयोग्ये काले भोजयतोऽनगारवेलाया वा प्रागेव पश्चाद्वा भुजानस्य च तृतीयः स्यात् । परव्यपदेशः-परस्यान्यस्य सम्बन्धीदं गुडखण्डादीति विशेषेणापदेशो व्याजो, यदि वा अयमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं चतुर्थः। मत्सरः कोपः। यथा मागितः सन् कूप्यति सदपि वा मागितं न ददाति, प्रयच्छतोऽप्यादराभावो वा अन्यदातगुणासहिष्णुत्वं वा मत्सरः। यथा अनेन तावच्छ्रावकेण मागितेन दत्तं किमहमस्मादपि हीन इति परोन्नतिवैमनस्याहदाति । एतच्च मत्सरशब्दस्यानेकार्थत्वात्संगच्छते । तदुक्तम्- । ___'मत्सरः परसम्पत्त्यक्षमायां तद्वति क्रुधि ।' [
] एते पूर्वे चाज्ञानप्रमादादिनातिचाराः । अन्यथा तु भङ्गा एवेति भावनीयम् ॥५४॥
विशेषार्थ-सजीव पृथ्वी, जल, चूल्हा, पत्ते आदि पर मुनिको दिये जानेवाले आहार आदिका स्थापन करना सचित्त निक्षेप नामका अतिचार है। मुनि ऐसी वस्तुको ग्रहण नहीं करते, इसलिए कोई लोभी दाता इसी भावसे ऐसा करता है और सोचता है कि मुनिके नहीं ग्रहण करनेपर लाभ ही है। इसी प्रकारकी बुद्धिसे मुनिको देय आहार आदिको सचित्त पत्ते वगैरहसे ढाँकना सचित्तआवृति नामका दूसरा अतीवार है। अथवा मुनिकी अजानकारीमें उन्हें सचित्तमें रखे हुए या सचित्तसे ढंके हुए आहारको देना अतिचार है । पं. आशाधरजीने जो श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रका अनुसरण करके यह लिखा है कि मुनि नहीं लेंगे तो मेरा लाभ होगा इस बुद्धिसे आहारको सचित्त वस्तुमें रखना या ढाँकना अतिचार है यह मनको नहीं लगता। अतिथिसविभागवतो ऐसा तुच्छबुद्धि नहीं हो सकता। अज्ञान और प्रमादसे ही ऐसा अतिचार सम्भव है। किसी दिगम्बर ग्रन्थकारने ऐसा लिखा भी नहीं है। साधुओंके भिक्षाके समयको बिताकर अतिथिकी प्रतीक्षा करना तीसरा कालातिक्रम नामक अतिचार है । जो श्रावक मुनियों के भोजनके समयमें भोजन न करके मुनियोंके भोजनके समयसे पहले या पीछे भोजन करता है उसको यह अतिचार होता है। यह गुड़, खाँड आदि अमुकका है इस बहानेसे देना या यह कहकर देना कि इसके दाता यह हैं, यह वस्तु मैं देता हूँ किन्तु यह इन्होंने दी है, यह परव्यपदेश नामका चतुर्थ अतिचार है। मत्सर शब्दके अनेक अर्थ हैं । दूसरेकी सम्पत्तिको सहन न करना या क्रोध करना मत्सर है। साधुकी प्रतीक्षा करते हुए कोप करना कि इतनी देरसे खड़ा हूँ अभी तक कोई नहीं आया, यह मत्सर नामका अतिचार है । अथवा साधुके मिल जानेपर भी आहारदान न देना या देते हुए भी आदरपूर्वक न देना भी मत्सर नामक अतिचार है । अन्य दाताओंके गुणोंको सहन न करना भी मत्सर है। जैसे इस श्रावकने यह दिया क्या मैं इससे भी हीन हूँ इस प्रकार दूसरेसे डाह करके दान देना मत्सर है। इस तरह मत्सर शब्दके अनेक अर्थ होनेसे ये सब अतिचार घटित होते हैं। जितने भी अतिचार अब या पहले कहे हैं वे सब अज्ञान और प्रमादवश होनेसे अतिचार होते हैं। जान-बूझकर करनेपर तो अतिचार न होकर व्रतके भंग ही हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें परव्यपदेश और कालातिक्रमके स्थानमें अनादर और अस्मरण नामके अतिचार हैं। शेष सबने ये ही पाँच अतिचार कहे हैं ।।५५।। १. र. श्रा. १२१ श्लो. । २. त. सू. ७३६, पुरुषार्थ. १९४ श्लो.। अमि. श्रा. ७।१४ ।
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