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________________ २५२ धर्मामृत ( सागार) सुदृग्गुहि-सम्यक्त्वघातके । उक्तं च---- 'सङ्क्रान्तौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमतिः । सम्यक्त्ववनं छित्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येषः ।। यो ददते मृततृप्त्ये बहुधा दानानि नूनमस्तधियः । पल्लवयितुं तरुं ते भस्मीभूतं निषिश्चन्ति ।। दाने दत्ते पुत्रैर्मुच्यन्ते पापतोऽत्र यदि पितरः । विहिते तदा चरित्र परेण मुक्ति परो याति ॥ गङ्गागतेऽस्थिजाले भवति सुखी यदि मृतोऽत्र चिरकालम् । भस्मीकृतस्तदाम्भः सिक्तः पल्लवयते वृक्षः ॥' [ अमि. श्रा. ९।६०, ६१, ६३, ६४ ] यद्यपि च नैष्ठिक इति वचनात्पाक्षिकस्याव्युत्पन्नसम्यक्त्वावस्थतया भूम्यादिदानं न प्रतिषिध्यते । तथापि ग्रहणादौ तस्यापि दानमविधेयमेव, सम्यक्त्वोपघातस्य तेनाप्यवश्यपरिहार्यत्वात् ॥५३॥ अथ तव्रतातिचारपरिहारार्थमाह त्याज्याः सचित्तनिक्षेपोऽतिथिदाने तदावृतिः। सकालातिक्रमपरव्यपदेशश्च मत्सरः॥५४॥ सचित्तनिक्षेपः-सचित्ते सजीवे पृथिवीजलकुम्भोपचुल्लीधान्यादौ निक्षेपो देयस्य वस्तुनः स्थापनम् । जिससे संयम उसी तरह कमजोर होता है जैसे दुर्भिक्षसे मानव । जिससे राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह, काम उत्पन्न होते हैं ऐसे सुवर्णका दान जिसने दिया उसने सुवर्ण नहीं किन्तु उसे खानेके लिए व्याघ्र ही दे दिया। तिलोंके दान में भी पाप है क्योंकि तिलोंमें बहुत जीव पैदा हो जाते हैं। घर देनेका फल भी केवल पाप ही है क्योंकि घर संसारके प्रारम्भोंका कारण है। इसी तरह गायके देने में भी कोई पुण्य नहीं है। गौका शरीर सब देवों और तीर्थोंका निवासस्थान माना जाता है ऐसी गौको कोई कैसे देता है और कैसे कोई लेता है । जो मूढ़मति संक्रान्तिमें या रविवार आदिके दिन धनका दान करता है वह सम्यक्त्वरूपी वनको काटकर मिथ्यात्वरूपी वनको बोता है। इसी तरह कन्या मोक्ष के द्वारको बन्द करनेके लिए साँकलके समान है। धर्म, धन आचारपर विपत्ति लानेवाली है। उसका दान कैसे कल्याणकारी हो सकता है। जो निबुद्धि पुरुष मृत मनुष्यकी तृप्ति के लिए बहुत-सा दान करते हैं वे अवश्य ही जले हुए वृक्षको पल्लवित करने के लिए पानीसे सींचते हैं । यदि ब्राह्मणको भोजन कराने में पितर तृप्त होते हैं तो दूसरेके घी पीनेसे तीसरा मनुष्य भी पुष्ट हो सकता है । यदि पुत्रके दान देनेसे पितर पापसे मुक्त होते हैं तो किसीके तप करनेसे भी किसी अन्यकी मुक्ति होनी चाहिए। मरनेके बाद मृतककी हड्डियाँ यदि गंगामें डालनेसे मृतकको सुख होता है तब तो जला हुआ वृक्ष भी पानीसे सींचनेसे हरा-भरा हो जाना चाहिए । इस तरह आचार्य अमितगतिने लोकमें प्रचलित मिथ्या दानोंकी बहुत आलोचना की है। आचाय सोमदेवने कहा है-'जो भोजन विरूप हो, चलित रस हो, फेंका हुआ हो, प्रकृति विरुद्ध हो, जल गया हो, रोगक क हो, नीच लोगोंके खाने योग्य हो, दूसरोंके लिए बनाया हो, दूसरे गाँवसे लाया गया हो, भेंटमें आया हो, बाजारसे खरीदा हो, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए ।।५३।। आगे अतिथिसंविभाग व्रतके अतिचारोंको दूर करने की प्रेरणा करते हैं अतिथिसंविभागवती अतिथिसंविभागवतमें सचित्तनिक्षेप, सचित्तआवृत्ति, कालातिक्रम, परव्यपदेश और मत्सरको छोड़े। ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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