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________________ २५० धर्मामृत ( सागार) अपि च 'गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो वाऽतिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥' [ पुरुषार्थ. १७३ ] अर्धतृतीयेषु-जम्बूद्वीप-धातकीखण्डपुष्करवरद्वीपस्य चार्धे ॥५२॥ अथ भूम्यादीनां देयत्वं ग्रहणादौ च दानं नैष्ठिकस्य हिंसा-सम्यक्त्वोपघातहेतुत्वप्रकाशनेन निषेधु६ माह हिसार्थत्वान्न भूगेह-लोह-गोऽश्वादि नैष्ठिकः। दद्यान्न ग्रहसंक्रान्तिश्रद्धादौ च सुदृग्नुहि ॥५३॥ हिंसार्थत्वात्-प्राणिवधनिमित्तत्वात् । भूमेरदेयत्वम् । यथा 'हलविदार्यमाणायां गभिण्यामिव योषिति । नियन्ते प्राणिनो यस्यां तां गां किं.......क्तम् ॥' [ ] गेहस्य यथा 'प्रारम्भा यत्र जायन्ते चित्राः संसारहेतवः। तत्सद्म ददतो घोरं केवलं कलिलं फलम् ॥' [ अमि. श्रा. ९।५२ ] लोहस्थ यथा 'यद्यच्छस्त्रं महाहिस्रं तत्तद्येन विधीयते। तदहिंस्रमनाः लोहं कथं दद्याद्विचक्षणः ॥ [ ] गोर्यथा 'दद्यादर्धप्रसूतां गां यो हि पुण्याय पर्वणि । म्रियमाणामिव हहा वय॑ते सोऽपि धार्मिकः ।। यस्या अपाने तीर्थानि मुखेनाश्नाति याऽशुचिम् । तां मन्वानाः पवित्रां गां धर्माय ददते जडाः ।। प्रत्यहं दुह्यमानायां यस्यां वत्सः प्रपीड्यते । खुरादिभिर्जन्तुघ्नीं तां दद्याद् गां श्रेयसे कथम् ॥' [ विशेषार्थ-अमृतचन्द्राचार्यने कहा है-'अपने लिए बनाया गया भोजन मुनिको दूंगा इस प्रकार त्यागकी भावना रखकर, अरति और खेदसे रहित तथा लोभ जिसका मन्द हो गया है ऐसा दाता अहिंसारूप ही होता है। तथा जो भौंरेकी तरह दाताओंको पीड़ा नहीं पहुँचाता ऐसे घर आये गुणवान् अतिथिको जो दान देता है वह सबसे बड़ा लोभी है; क्योंकि वह दान देकर अपना द्रव्य अपने साथ ले जाता है ॥५१-५२॥ आगे हिंसा तथा सम्यक्त्वके घातका कारण होनेसे नैष्ठिक श्रावकको भूमि आदिका दान तथा ग्रहण आदिमें दान देनेका निषेध करते हैं नैष्ठिक श्रावक प्राणिवधमें निमित्त होनेसे भूमि, मकान, लोहा, गाय, घोड़ा आदिका दान न करे। तथा सम्यग्दर्शनके घातक सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहणमें, संक्रान्ति में और मातापिता आदिके श्राद्धमें अपना द्रव्य किसीको न दे॥५३॥ - विशेषार्थ-अन्य धर्मों में पुण्य मानकर भूमि, मकान, लोहा, गाय, घोड़ा, कन्या, स्वर्ण, तिल, दही, अन्न आदिका दान दिया जाता है। तथा जब सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण होता है या मकर संक्रान्ति आदि होती है तो उसमें भी दान दिया जाता है। माता-पिताके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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